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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२३

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मेरी आत्मकहानी
 


मेरी और उनका रुख टेढ़ा ही रहा। थोड़े दिनों के बाद उनकी बदली इलाहाबाद को हो गई और हमारे अँगरेजी के प्रोफेसर मिस्टर सी॰ एफ॰ डी॰ लॉ फास आए। ये सज्जन शिष्ट स्वभाव के थे, पर मिलनसार न थे।

एक दूसरी घटना सुनिए। मेरा साथ कुछ उच्छृंखल लड़कों से हो गया था। शनिवार को जाड़े के दिनों में १२ बजे कालेज बंद हो जाता था और क्रिकेट का खेल होता था। क्वींस कालेज की अमरूद की बाडी प्रसिद्ध थी। अब वह उजड़ गई है और खेल के मैदान का विस्तार घटा दिया गया है इसमें जाकर हम लोग अमरूद खाते थे और आनंद मनाते थे। एक शनिवार को कालेज के पास एक बगीचे में जो वरुणा नदी के किनारे पर है हम लोग गए। यहाँ भाँग छनी। घर आते आते मुझे खूब नशा चढ़ा। अब तो यह डर लगने लगा कि यदि पिता जी को यह बात मालूम हो गई तो क्या कुंदी होगी। डर के मारे माँ से बहाना किया कि सिर में दर्द है। माँ ने गोदी में सिर रख कर तेल लगाना आरंभ किया, मुझे नींद आ गई। इस प्रकार मेरी जान बची। तब से अब तक फिर मैंने कभी भाँग पीने का नाम नहीं लिया।

इंटरमीडियेट की परीक्षा का एक विषय इतिहास था जिसमें रोम, यूनान और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ाया जाता था। मैंने इन पुस्तकों को ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ा था, केवल साधारण बातें याद थीं। इतिहास की परीक्षा के दिन एक मित्र (प्रमधनाथ विश्वास) मुझसे प्रश्न करने लगे। उन्हें यह विषय खूब याद था। सब