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मेरी आत्मकहानी
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जगन्नाथप्रसाद शम्मी की नियुक्ति का प्रश्न उठा हुआ था तब उसने भी उसके लिये उद्योग किया। उसके मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि यदि वह मेरा विरोध करे और जगह-जगह मेरी निंदा करता फिरे तो मेरे विरोध करने पर भी उसकी नियुक्ति हो जायगी। यह भावना उसके मन में कैसे उत्पन्न हुई अथवा किसके उपदेश से उसने इस मार्ग का अवलंबन किया यह मुझे आज तक ज्ञात नहीं हुआ। मेरे मित्र ने कई बेर मुझसे कहा कि मैंने उसे बहुत डाँटा। पर उनकी डाँट-फटकार का कोई परिणाम न देख पड़ा। मेर इन मित्र की यशालिप्सा इतनी बढ़ी हुई है और इसके लिये वे इसना चिंतित रहते हैं कि किसी प्रकार से भी अपनी यशरूपी चादर पर कलंक का एक छींटा भी नहीं लगने देना चाहते। यदि उन्हे कभी कोई आशंका भी हो जाती है तो साम, दाम, दंड, भेद में से जिस नीति को उपयुक्त समझते उसका अनुसरण कर वे अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं। उन्हें कदाचित् यह आशका थी कि यदि मैं उसको अपने आश्रय से निकाल देता हूँ तो कहीं वह विद्यार्थी मेरे ही पीछे न पड़ जाय और तब स्थिति सँभालना कठिन हो जायगा।

पंडित रामनारायण मिश्र मेरे बहुत पुराने मित्रो मे हैं। अनेक अवसरों पर उन्होंने मेरी बड़ी सहायता की है। मैंने भी यथासाध्य उनका हाथ बटाने का उद्योग किया है। सन् १९०५ में जब काशी मे सोशल कान्फरेंस हुई थी तब उन्होंने मुझे शिखडी-रूप में आगे खड़ा करके उस कान्फरेंस का काम चलाया था। गालियाँ