मैंने खाई थीं और सब कार्य-संचालन परोनरूप से पंडित जी करते थे। मुझे इस बात का आंतरिक खेद है कि एक बेर मैंने अपने पुत्र के संबंध में उनसे भिक्षा माँगी थी। वे नही तो न कर सके, पर एक अन्य व्यक्ति की आड़ में उन्होंने उस प्रस्ताव का विरोध कराया, यद्यपि वहाँ विरोध की आवश्यकता ही न थी। वहाँ पर वे चाहते तो भी मुझे मिक्षा देने में असमर्थ थे। इस स्थिति का उनको पता न था, नही तो एक बडे पुराने मित्र की उपेक्षा करने के दोष से यो ही बच जाते।
अपने जिन शिष्यो से मेरी अधिक घनिष्ठता भी उनमे हरिहर नाथ टंडन, श्रीधरसिंह, सत्यजीवन वर्म्मा ग्मापति शुक्ल रमेशदत्त पाठक कृष्णशंकर शुक्ल, वलराम उपाध्याय, पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव आदि भी थे। उनकी भक्ति और श्रद्वा पूर्ववत् बनी हुई है। उनसे मेरा परम स्नेह है और वे भूलकर भी आक्षेपयोय आचरण नहीं करते।
युनिवर्सिटी की सेवा करते मुझे कई अर्थो की रचना करनी पड़ी है जिनका वर्णन इस प्रकार है―
(१) साहित्यालोचन―यह ग्रंथ हिंदू-विश्वविद्यालय के एम० ए० क्लास के विद्याथियों को पढ़ाने के लिये लिखा गया। एम० ए० क्लास के पाठ्यक्रम में तीन विषय ऐसे रखे गये थे जिनके लिये उपयुक्त पुस्तकें नहीं थीं। ये विषय थे―भारतवर्ष का भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास वथा साहित्यिक आलोचना। इन तीनों विषयों के लिये अनेक पुस्तकों के नामो का निर्देश कर दिया