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मेरी आत्मकहानी
 

हो तो यह दूसरा यंत्र. जिससे नीबू के रस में भिगो रखा. बाँध लेना। वे इतना कहकर चले गए और घर पर जाकर कुल मत्रोपचार किया । अभी डाक्टरों की दवा आई भी न थी कि मुझ पेशाब लगा और उसके साथ एक पत्थर का टुकडा. जो अभी बहुत कडा न हुआ था. निकल गया और दर्द दूर हो गया। इन तीन घटनाओं का मुझे अच्छी तरह स्मरण है, इससे उनका उल्लेख कर दिया। यो तो निन्य ही उनका समागम होता रहा। प्राय प्रविसोम और बृहस्पतिवार को वे मेरे यहाँ सध्या-ममय श्राते और देर तक वार्तालाप होता रहता । अब ये कलकत्ते जाकर वहीं बस तब यह पद हो गया। (६)मैं पहले अपने सबसे छोटे महोदर मोहनलाल के संबंध में लिख चुका हूं। इसे मैं अपने साथ कश्मीर ले गया। लाहौर के डी० ए० वी० स्कूल में भरती कराया, पर कुछ लोगो की कृपा तथा दुर्व्यवहार से उसका मन पढ़ने-लिखने में न लगा और कुसंगति में पड़ जाने से वह उच्छृखल हो गया । इधर मेरे भाई रामकृष्ण का देहात सन् १९०८ में हो गया था। इसका विवाह भारतजीवन प्रेस के स्वामी बाबू रामकृष्ण वर्मा की पुत्री से हुआ था। बाबू रामकृष्ण वर्मा की मृत्यु के उपराव मोहनलाल का वहाँ आना-जाना पढ़ने लगा। १९०८ के उपरात वह वहीं जाकर रहा । घायू रामकृष्ण वर्मा लाखो रुपए की सपत्ति छोड़ गए थे और उनका उत्तराधिकारी उनके भतीजे के अतिरिक्त और कोई न था। उससे बाबू रामकृष्ण वर्मा की स्त्री और पुत्री से न बनी। इस अनवन के कारण मोहनलाल भी