पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
२३७
 

दो अन्य अवसरों पर मुझे भट्टाचार्य जी का चमत्कार देखने का अवसर प्राप्त हुआ । मैने अपने दोनो पौत्रो-माधवलाल और कृष्णलाल के यज्ञोपवीत का आयोजन किया । गणेश-पूजन के एक दिन पहले कृष्णलाल को ज्वर आगया। डाक्टर को बुलाकर दिखाया गया तो उन्होने कहा कि यह सात दिन से पहले नहीं उतरेगा। मैं बड़ी चिंता में पड़ा । अंत मे पंडित हरिनारायण जी के पास गया और उनसे कहा कि या तो यज्ञोपवीत की दूसरी सायत निकाल दीजिए या कोई ऐसा उपाय कीजिए जिसमें कृष्णलाल का ज्वर उतर जाय। उन्होने पत्रा देखकर कहा कि दूसरी सायत तो नहीं बनती। अच्छा, उपाय करता हूँ। उन्होंने मुझे एक यत्र दिया और कहा कि इसे पहना दो। ईश्वर की कृपा हुई तो ज्वर उतर जायगा और यरोपवीत-संस्कार निर्विघ्न हो जायगा। मैंने लाकर यत्र पहना दिया। दूसरे दिन सवेरे ज्वर उतर गया और सव सस्कार यथावत् किया गया। किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं हुई। सन् १९३२ के जुलाई मास के अंत में एक दिन कालेज से लौटने पर मुझे गुर्दे का दर्द आरंभ हुआ। दर्द का वेग क्रमश बढ़ने लगा। डाक्टर बुलाए गए। पहले डाक्टर मुकुंदस्वरूप वर्मा पाए। उन्होने देखकर दवाई का पुर्जा़ लिखा। पीछे से डाक्टर अचलविहारी सेठ भी आए। वे कहीं किसी बीमार को देखने गए हुए थे। वे सुनते ही आए । उन्होंने भी दवाई लिखी। इसी बीच मैंने पंडित हरिनारायण जी को कहलाया। वे तुरन्त चले आए। उन्होने एक यंत्र देकर कहा कि इसे कमर मे बॉध लो। यदि आधे घंटे मे लाभ न