इस अनुष्ठान का आरंभिक अधिवेशन लखनऊ मे हुआ और उसमे सर विलियम मैरिस और राय राजेश्वरबली ने भाषण देते हुए स्पष्ट शब्दो में कहा कि इस संस्था का मुख्य उद्देश्य साहित्यिक है। राजनीतिक भावना से प्रेरित होकर यह काम नहीं किया गया है। हिंदी और उर्दू दोनो भाषाओं की अंगपुष्टि यह करेगी। पर सन्। १९३० में एक विशेष अधिवेशन में इस बात की घोषणा की गई है कि यह संस्था हिंदी और उर्दू दोनों को मिलाकर एक हिंदुस्तानी भाषा की परिपुष्टि के लिये उद्योगशील होगी। यह उस आंदोलन का आरंभ था जिसने आगे चलकर भयंकर रूप धारण किया। मैं समझता हूँ कि हिंदुस्तानी के प्रचार से हिंदी को बड़ी हानि पहुंचने की आशंका है, क्योंकि हिंदुस्तानी के पक्षपाती विशेषकर वे ही लोग है जो हिंदी से स्थूल रूप से परिचित या सर्वथा अपरिचित हैं और उर्दू से विशेष परिचित है। इसके अतिरिक हिंदुस्तानी मे उच्च कोटि के साहित्य की रचना नहीं हो सकती। समझने की बात है कि हिंदी भारतवर्ष की उन आर्य-भाषाओ मे से है जिनकी उत्पत्ति क्रमिक विकास के सिद्धांत के अनुसार संस्कृत से हुई है। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक सस्कृत-शब्दो का प्रचार है। हमारे सब धर्म-कृत्य इसी भाषा मे संपादित होते है। यदि भारतवर्ष में कोई ऐसी भाषा हो सकती है, जो एकता के सूत्र में यहाॅ की जनता को बॉघ सकती है तो वह वही भाषा होगी जो संस्कृतप्राय होगी। हमारी हिंदी से चुन- चुनकर संस्कृत के साधारण से साधारण तत्सम शब्दो को निकालना और उनके स्थान में उर्दू के शब्दों को भरना मानो हिंदी की जड़ में फा० १६
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