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मेरी आत्मकहानी
 

सन् १९३६ मे मुझे आगरा युनिवर्सिटी ने कानपुर में तीन व्याख्यान हिंदी में देने के लिये आमंत्रित किया। मेरे तीन व्याख्यानो का विषय था-देवनागरी लिपि, हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी और हिंदी- साहित्य की रूप-रेखा| पहले दोनो व्याख्यानो का सारांश नागरी- प्रचारिणी पत्रिका में छपा है। उससे देवनागरी लिपि और हिंदुस्तानी भाषा के सबंध मे मेरे विचार स्पष्ट हो जायॅगे| (८) १ जनवरी १९२७ मे भारत-गवमेंट ने मेरी हिंदी सेवा के उपलक्ष में मुझे 'रायसाहब' की उपाधि दी। जून सन् १९३३ में 'रायबहादुर' की उपाधि प्रदान की गई। कई वर्षों के अनंतर यह विदित हुआ कि इन दोनों उपाधियों के दिलानेवाले रायबहादुर डाक्टर हीरालाल थे । सन् १९२६ के लगभग उन्होंने मिस्टर ए० एच० मेकेंजी को लिखा कि तुम्हारे प्रांत में हिंदी-साहित्य-सेवकों मे श्यामसुदरदास है । आश्चर्य है कि गवमेंट ने अब तक इनकी सेवाओं का मूल्य नहीं समझा । इस पर मिस्टर मेकेंजी ने 'रायसाहब की उपाधि देने के लिये गवमेंट को लिखा । मुझे इसकी कोई सूचना न थी। पहली जनवरी को मैं बाबू जगन्नाथदास रमाकर के साथ घूमने गया था। वहां से संध्या को लौटने पर 'लीडर' पत्र मिला, जिससे मुझे पहले-पहल इस उपाधि-प्रदान की सूचना मिली । पर मुझे इससे कुछ आनन्द नहीं हुआ, यहाँ तक कि मैंने अपने कई घनिष्ठ मित्रों, सभा, तथा युनिवर्सिटी से प्रार्थना कर दी कि वे लोग इस उपाधि का उपयोग न करें। इस पर डाक्टर हीरालाल ने फिर मिस्टर मेकेजी को लिखा कि आपने उपाधि दी पर आपको यह ज्ञात