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मेरी आत्मकहानी
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न होगा। कि इसका उपयोग नहीं हो रहा है। एक दिन प्रयाग में मै मिस्टर मेकेजी से सभा के संबंध में मिलने गया और बाते हो जाने के अनंतर उन्होंने कहा कि तुम्हें 'रायसाहब' की उपाधि से असतोष, हुआ है। तुम्हे इससे बड़ी उपाधि मिलेगी। पर यह धीरे-धीरे ही हो सकता है। मैंने कहा कि मैं इन उपाधियो का भूखा नहीं हूँ। जून सन् १९३३ मे मैं बीमार पड़ा हुआ था। उस समय दोपहर को 'लीडर' पत्र मिला। उसमे मुझे 'रायबहादुर' की उपाधि मिलने की। सूचना थी। इसके कुछ दिनो पीछे बाबू हीरालाल ने अपने पत्र में सब बातें लिख भेजी तब मुझे विदित हुआ कि इन दोनो उपाधियो के दिलाने के कारण वे ही थे। कोई ओछी प्रकृति का मनुष्य होता तो इस बात का ढंका पीट देता, पर डाक्टर साहब-से सौभ्य और सज्जन प्रकृति के व्यक्ति का यह काम था कि ६, ७ वर्षों तक इस बात को अपने मन में दबाए रहे और संयोग से इस घटना का उल्लेख-मात्र कर दिया। सन् १९३८ में हिंदी-साहित्य सम्मेलन ने मेरी हिन्दी-सेवाओ के उपलक्ष में मुझे "साहित्यवाचस्पति" की उपाधि प्रदान की। (९) सन् १९३३ मे राय कृष्णदास ने सभा मे पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के अभिनंदन के लिये प्रस्ताव किया । यह निश्चय हुआ कि उनको एक ग्रंथ, जिसमे विद्वाना के लेख वथा भद्धाजलियाँ रहे. अर्पित किया जाय । मैं इसका संपादक नही होना चाहता था, पर राय कृष्णदास ने जोर दिया कि आप अपना नाम दे दीजिए काम मैं सब कर लूंगा। मैं सहमत हो गया। 'लेख इकठ्ठे होने लगे। यथासमय , साहि