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मेरी आत्मकहानी
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की । सभा ने इसे स्वीकार किया। आनद का विषय है कि कोई दो- ढाई वर्ष तक खटाई में पड़कर अब इसका छपना आरंभ हो गया है। इसी भावना से प्रेरित होकर मैने रत्नाकर जी की समस्त कविताओं के संग्रह को प्रकाशित करने का प्रबंध किया और वह सन् १९३३ में उनके प्रथम वार्षिक श्राद्ध की तिथि को प्रकाशित हो गया। इस प्रकार अपने तीन मित्रों में से राधाकृष्णदास के मित्र-ऋण से मैं अशत' मुक्त हो गया हूँ, रत्नाकर जी का भी ऋण चुका दिया है‌‌. आशा है गुलेरी जी के मित्र-ऋण से मैं शीघ्र मुक्त हो जाऊँगा। मेरी आंतरिक कामना है कि जयशंकरप्रसाद जी तथा प्रेमचंद जी के ग्रथो का एक उत्तम सग्रह निकल जाता तो हिंदी के लिये गौरव की बात होती। पर अभी किसी उद्योगशील व्यक्ति का ध्यान इस और नहीं गया है। मित्रवर मैथिलीशरण गुप्त का भी अभिनंदन हुआ है, पर इसका कोई फल नहीं हुआ। मुझे इनके अभिनंदन में सम्मिलित होने के लिये पंडित पद्मनारायण आचार्य ने कहा था। मैंने यही उत्तर दिया कि मैं ऐसे अभिनंदन का पक्षपाती नही हूँ। पर जो काम तुम कर रहे हो करो, मै न तो उसका विरोध करूँगा और न उसमे सम्मिलित ही होऊंगा। "मैथिलीमान" नामक पुस्तक की घोषणा की गई थी, पर उसके अव तक दर्शन न हुए। पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय के लिये एक अभिनंदनग्रंथ प्रस्तुत किया गया। चारो ओर आदमी दौड़ाकर लेखो का संग्रह हुआ था। इस काम पर लोग वेतन

  • खेट है कि कोई २५० पृष्ठ छप जाने पर भागे उसका छपना

रुका है।