या उपसमिति बने जो सभा से स्वतंत्र ही और उसके कार्य में कोई हस्तक्षेप न कर सके, सभा केवल ६००) वार्षिक देती जाय। एक पत्र मे उन्होंने स्पष्ट लिखा था―“यह बात प्रबध-समिति स्पष्ट रूप एवं स्पष्ट हृदय से मान ले कि कलाभवन-समिति प्रबंध-समिति के अंतर्गत स्वायत्त सस्था है।” मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता था क्योंकि प्रब प्रबंध-समिति को नियमानुसार ‘उपसमिति’ स्थापित करने का अधिकार था। समिति तो केवल साधारण सभा बना सकती थी। उनके कार्यों से यह स्पष्ट था कि वे सभा को गोण और क्लाभवन को प्रधान बनाना चाहते थे। सभा से उसका संबध उतना ही चाहते थे जितना अत्यंत आवश्यक हो। जब कभी कोई सभा में आता या बुलाया जाता तो उसकी सूचना में नागरीप्रचारिणी सभा का उल्लेख गौण रूप से होता या होता ही नहीं। मेरा उद्देश्य क्लाभवन को सभा का एक प्रधान अंग बनाना था। इस प्रकार ध्येयों में विभिन्नता होने के कारण सवर्प चलता रहा। एक समय तो यह भी विचारा गया कि कलाभवन लौटा दिया जाय और झगड़ा शांत किया जाय। तब इस बात की जाँच होने लगी कि यदि कलाभवन लौटाया जाय तो किसको सौंपा जाय। क्या भारत-कला-परिषद् का कहीं अस्तित्व है कि उसकी वस्तु उसको दे दी जाय! कला-परिषद् को जीवित सिद्ध करने की राय कृष्णदास ने चेष्टा भी की। सन् १९२५ में छपी सूची के अनुसार उसके १०६ सदस्य थे। पर जनवरी १९३६ ने उसके ८ सदस्य रह गए थे जो आनरेरी या स्थायी थे। सन् १९२७ से रजिस्ट्रार, ज्वाइंट स्टाक कपनी के पास कला-परिषद् के कार्यकर्ताओ,
पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२६९
दिखावट