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मेरी आत्मकहानी
 

भारत-कला-भवन को विशेष शर्तों पर देना निश्चय किया। उनमें कुछ ऐसी चीजें हैं जो मेरे मुश्किल जब चाहें वापस ले सकते हैं, न वो उसी शर्त पर भवन के भी सुपुर्द हैं; परंतु अभी तक उसकी संपूर्ण शर्तें कार्यान्वित नहीं की गई हैं। जब तक वे साधारण सभा में स्वीकृत न हो जायें उस समय तक मेरे मुवक्किल को भी उन शर्तों को रद्द कराने का पूरा अधिकार बाकी है। मेरे मुसकिल क्ला-भवन के आजन्म संग्रहाष्यक्ष हैं, अतएव कला-भवन की संपूर्ण वस्तु उनके अधिकार में है और उनकी अनुमति या आज्ञा के बिना कोई वस्तु वहाँ से घट-बढ़ नहीं सकती और न क्लाभवन खुल सकता है। उनको पता चला है कि उनकी आज्ञा व अनुमति के बिना उसने कुछ चल-विचल होनेवाला है और क्ला-भवन खोला जानेवाला भी है। ऐसा होना बड़ा अनुचित तया अनियमित है। आप कृपाकर ऐसा न होने दीजिए। नहीं तो उनको खेद के साथ हुक्म इन्तिनाई निकलवाना पड़ेगा।’

इस संबंध में यहाँ यह सूचित करना आवश्यक है कि तारीख १७ अगस्त १९३६ को सभा-भवन में सर हैरी हेग पधारनेवाले थे। अतएव यह नोटिस बहुत ही सामयिक थी। सारांश यह कि यह झगड़ा चलता रहा और कार्य को नियमित रूप से चलाने का कोई मार्ग निकलता दिखाई न पड़ने से सभा ने निश्चय लिया कि कला-भवन की वे सब वस्तुएँ जो कला-परिषद्-द्वारा प्राप्त हुई हैं लौटा दी जायें। इस पर यह कानूनी आपत्ति हुई कि कला-परिषद् वो अब जीवित नहीं है फिर ये वस्तुएँ लोटाई नहीं जा सकती। इस बीच