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मेरी आत्मकहानी
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मे एक घटना और हो गई। राय कृष्णदास ने सभा को लिखा कि मैने ८० वस्तुएं कला परिषद् को मॅगनी दी थी वे सब मुझे लौटा दी जायें । मैंने पूछा कि कला-परिषद् एक रजिस्टर्ड संस्था है। उसका कार्य विवरण अवश्य होगा और उसमे यह लिखा होगा कि कब और किन शतै पर ये वस्तुएँ कला-भवन मे आई । उन्होने यह उत्तर दिया कि इस संबंध में मेरा वचन ही प्रमाण है। यह इतना बड़ा प्रमाण था कि इसके आगे सबको सिर झुकाना पडा। वस्तु लौदा देने का निश्चय हुआ।

इसी समय के लगभग और दो-एक घटनायें ऐसी घटित हुई कि उन्होंने मुझे बहुत क्षुब्ध कर दिया और मैं चिंताग्रस्त रहने लगा। १० अप्रैल १९३३ को जब सभा के वार्षिक प्रायव्यय तथा अगले वर्ष का अनुमान-पत्र उपस्थित किया गया तव यह विदित हुआ कि १८१३||-J10 अमानत मे लेना है। मैंने उस हिसाव की जाँच की तो यह विदित हुआ कि इसमे से १४३३१) एक कार्यकर्ता महाशय न समय-समय पर लेकर अपने निजी खर्च मे व्यय किया है। मैंने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं सभा को अपनी समझता हूँ। इसलिये मैंने यह रुपया लिया है। मै इसे शुद-सहित लौटा दूंगा। मैंने कहा कि सभा कोई महाजनी का व्यापार नहीं करती जो तुम्हे रुपया उधार छ । मैने उचित समझा कि यह व्यवस्था प्रबंध समिति को बता दी जाय, क्योकि सार्वजनिक संस्था होने से इस प्रकार की गड़बड अगोपनीय है और प्रकट होने पर सब पर लांछन लग सकता है। सभा के हित आगे मुझे