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मेरी आत्मकहानी
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उनके सुपुत्र वावू राधेकृष्णदास ने वह सब सामान सभा को दे दिया जिसमें वह उपयुक्त प्रबंध करके सूरसागर का प्रकाशन कर सके। सभा ने इस कार्य का आयोजन किया और मुशी अजमेरी जी को, राय कृष्णदास के परामर्श पर, इस कार्य का भार सौंपा। अजमेरी जी चाहते थे कि उन्हें वर्ष में चार महीने विना वेतन के छुट्टी मिला करे । वे नित्य केवल चार घंटे काम करने के लिये उद्यत थे। काम को उन्होंने प्रारंभ कर दिया, पर उनकी शर्ते मुझे अनुचित जान पड़ी। इमलिये मैंने इनका विरोध किया। कई महीनों तक विवाद चलने के अनंतर अजमेरी जी ने त्यागपत्र दे दिया और पंडित नंदुलारे वाजपेजी सम्पादक चुने गए। इस विवाद के कारण वैमनस्य की मात्रा बढ़ी और कला भवन को लेकर उसने और मी विषम रूप धारण किया । पंडित नंददुलारे वाजपेयी ने समस्त सूर- सागर का संपादन किया और उसके छापने का प्रबंध हुआ। इस काम मे सभा का बहुत रुपया लग गया था। इस कारण सभा उसको छपवाने में असमर्थ हो चली। मैंने प्रस्ताव किया कि मूल सूरसागर "सूर्यकुमारी पुस्तक-माला" में प्रकाशित किया जाय । मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि साधारण-सी साधारण पुस्तको के लिये दो हजार से अधिक रुपया खर्च किया जा सकता था, सूरदास की कीर्ति के लिये किसी ने ध्यान भी न दिया। इसका कारण कदाचित् इस कार्य से मेरी अधिक रुचि हो, अथवा प्रबंध समिति साहित्य के रत्नों की रक्षा से उदासीन हो। कारण छ भी हो, वह संपादित ग्रंथों बसतै मे बंद पड़ा है। पर