पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
२१
 

बोलनेवाला तो गँवार कहा जाता था। वह बडी हेय दृष्टि से देखा जाता था। इस अपमान की अवस्था में लडको के खिलवाड़ की तरह नागरी-प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। किसी ने स्वप्न भी न देखा था कि यह हिंदी की उन्नति कर सकेगी और उसकी पूछ होगी। मैं तो इसे ईश्वर की प्रेरणा ही समझता हूँ कि वह इतनी उन्नति कर सकी और देश की प्रमुख संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान पर विराज सकी। प्रारंभ मे तो यह लड़कों का खिलवाड़ ही थी। प्रतिरविवार को लोग इकट्ठे होते और व्याख्यान देते। पहले-पहल भारतजीवन पत्र के सपादक बाबू कार्तिकप्रसाद ने इसे आश्रय दिया और अपना वरद हाय इसके सिर पर रखा। प्रत्येक बात में वे इसके फ्रेंड, फिलासफर और गाइड हुए। पहले ही वर्ष में जिन कार्यों का सूत्रपात हुआ वे समय पाकर पल्लवित और पुष्पित हुए तथा उनमें फल लगे। सभा के इस वात्यकाल का स्मरण कर और सन् १९३९ मे उसकी उन्नति देखकर परम संतोष, उत्साह और आनंद-होता है। हमारी आरंभ-शूरता के पाप को इसने धो बहाया। आरंभ मे तो हिंदी के प्रमुख लोग इसमे समिलित होने में बडी आना-कानी करते थे, यहाँ तक कि बाबू राधाकृष्णदास भी कई महीनो तक इससे सबंध करने में हिचकिचाते रहे। उनका अनुमान था कि यह बहुत दिनो तक न चल सकेगी और व्यर्थ हम लोगो की बदनामी होगी। पर बहुत जोर देने पर वे ६ महीने बाद समिलित हुए और इसके प्रथम सभापति चुने गए। उनके संमिलित होते ही यह उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुई। उन्होने अपने मित्रो तथा हिंदी के प्रमुख