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मेरी आत्मकहानी
 


दक्षिण अफ्रिका में स्वामी शंकरानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका व्याख्यान बड़ा जोशीला होता था। हम लोग इस व्याख्यान से बड़े उत्साहित हुए। यह निश्चय हुआ कि अगले सप्ताह में १६ जुलाई को फिर सभा हो। उसमें यह निश्चय हुआ कि आज नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना की जाय। मैं मंत्री चुना गया और सभा के साप्ताहिक अधिवेशन होने लगे। उस समय जो लोग उसमें संमिलित हुए उनमें से पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकर शिवकुमारसिंह और मैं अब तक इस सभा के सभासद बने हुए हैं। और लोग धीरे-धीरे अलग हो गए। अतएव उदार जनता ने हम लोगों को सभा का संस्थापक तथा जन्मदाता मान लिया है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का स्वर्गवास हो चुका था। प्रयाग में हिंदी के लिये कुछ उद्योग हुआ था, पर हमारी आरंभ-शूरता के कारण दो ही तीन वर्षों में वह स्थगित हो गया। इस समय हिंदी की बड़ी बुरी अवस्था थी। वह जीवित थी यही बड़ी बात थी राजा शिवप्रसाद के उद्योग तथा भारतेंदु जी के उसके लिये अपना सर्वस्व आहुति दे देने के कारण उसको जीवन-दान मिला था (हिंदी का नाम लेना भी इस समय पाप समझ जाता था। कचहरियों में इसकी बिलकुल पूछ नहीं थी। पढ़ाई में केवल मिडिल क्लास तक इसको स्थान मिला था। पढ़नेवाले विद्यार्थियों में अधिक संख्या उर्दू लेती थी। परीक्षार्थियों में भी उर्दूवालों की संख्या अधिक रहती थी। वही विद्यार्थी अच्छा और योग्य समझा जाता था जो अँगरेजी फर्राटे से बोल सकता था और उसी का मान भी होता था। हिंदी