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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२९४

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मेरी आत्मकहानी
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इन धौमयो शताब्दी में से बहुत से लोग मिल जाते हैं जो अपनी पानीन हस्तलिग्गिन पुग्नकों को देने की बात तो दूर रही, दिखाने में भी आनाकानी करते हैं। तथापि यह मोचकर कि कदाचित् नीति, धर्य और परिश्रम से काम करने पर कुछ लाभ अवश्य होगा, समा ने यह विचार किया कि यदि राजपुतान, बुदेलखंड, संयुक्त प्रदेश क्या श्रबध और पंजाब में प्राचीन हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों के संग्रहों के खोजने की चेष्टा की जाय और धनकी एक सूची बनाई जा सके तो आशा है कि गवमेंट के संरक्षण, अधिकार तथा देखरेख में इस खोज की अच्छी सामग्री मिल जाय। पर सभा उस समय अपनी बाल्यावस्था में तथा प्रारंभिक स्थिति में थी और ऐसे महत्त्वपूर्ण और व्यय-साध्य कार्य का भार उठाने में सर्वथा असमर्थ थी। अतएच. उसने भारतावमेंट तथा वंगाल की एशियाटिक मुसाइटी से प्रार्थना की कि भविष्य में हस्तलिखित संस्कृत-मुस्तकों की खोज तथा जांच करते समय यदि हिंदी की इस्वलिखित पुस्तके मी मिल जाय तो उनकी सूची भी फुपाकर प्रकाशित कर दी जाय ।। एशियाटिक सुमाइटी ने सभा की इस प्रार्थना पर उचित ध्यान देते हुए उसकी प्रमिलापा को पूर्ण करने की इच्छा प्रकट की। भारत- गवमेंट ने भी इसी तरह का संतोपजनक उत्तर दिया । सन् १८९५ के आरंम मे ही एशियाटिक सुसाइटी ने खोज का काम बनारस में धारंभ कर दिया और उस वर्ष कम-से-कम ६०० पुस्तको की नोटिसें वैयार की गई। दूसरे वर्ष उक्त सुसाइटी ने इस काम के करने में अपनी असमर्थता प्रकट की और वहीं इस कार्य की इतिश्री हो