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मेरी आत्मकहानी
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मै सभा के सभासद बनाने के लिये प्रयाग तथा लखनऊ गए। अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति सभासद बने। इसी यात्रा में मैं पहले-पहल पं० मदनमोहन मालवीय, पंडित बालकृष्ण भट्ट, बाबू कृष्णवलदेव वर्मा, मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा आदि से परिचित हुआ। यह यात्रा बड़ी सफल रही।

तीसरे वर्ष (सन् १८९५-९६) मे सभा ने कई महत्वपूर्ण कार्यों का आरंभ किया। अब हरिप्रकाश प्रेस में एक कमरा ४) रु० महीने पर किराये पर लिया गया और कुछ टेवल, कुर्सी, बैंच आदि का प्रबंध किया गया। जिस दिन सभा का कोई अधिवेशन होता उस दिन मुझे ही सब काम करना पड़ता था, यहाँ तक कि कभी कभी झाड़ू भी अपने हाथ से देना पड़ता था। पर इसके करने में न मुझे हिचकिचाहट होती थी और न लज्जा ही पाती थी। मैं नहीं कह सकता कि क्यो सब कामो के करने में मुझे इतना उत्साह था।

इसी वर्ष नागरी-प्रचारिणी पत्रिका निकालने का प्रबंध किया गया। सभा की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट में इस संबंध में यह लिखा है―

“सभा की कोई सामयिक पत्रिका न होने के कारण उसकी निर्णीत बहुत-सी बातें सर्व-साधारण में प्रचारित होने से रह जाती थी और सभा के वहुतेरे उद्योग सरोवर मे खिलकर मुरझानेवाले कमलों के समान हो जाते थे। दूसरे बहुतेरे भावपूर्ण उपयोगी लेख सभा मे आकर पुस्तकालय की आलमारियो को ही अलकृत करते थे जिससे उसके सुयोग्य लेखक इतोत्साह हो जाते थे और