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मेरी आत्मकहानी
 

सुरसिक उत्साही पाठक जन प्यासे चातक की भाँति बाट जोहते ही रह जाते थे। इन्ही बातो का विचार कर और हिंदी में भापातत्त्व, भूतत्व, विज्ञान, इतिहास आदि विद्याविषयक लेखों और ग्रंथों का पूर्ण अभाव देख सभा ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका निकालना प्रारंभ किया है।”

आरंभ मे यह पत्रिका त्रैमासिक निकलने लगी और मैं उसका प्रथम सपादक नियत हुआ।

चौथे वर्ष (१८९५-९६) में कई काम हुए। इस वर्ष में यह बात प्रचलित हुई कि गवर्नमेट अदालतों मे फारसी अक्षरों के स्थान पर रोमन अक्षरों का प्रचार करना चाहती है। इस सूचना से बड़ी खलबली मची। अतएव विचार किया गया कि इस अवसर पर चुप रहना ठीक न होगा। यदि एक बार रोमन अक्षरो का प्रचार हो गया तो फिर देवनागरी अक्षरों के प्रचार की आशा करना व्यर्थ होगा। आंदोलन करने के लिये सभा के पास धन नही था। अतएव, यह निश्चय हुआ कि मैं मुजफ्फरपुर जाऊँ और वहाँ से कुछ धन प्राप्त करने का उद्योग करूँ। मैंने सभा की आज्ञा शिरोधार्य की। वहाँ मै बाबू देवीप्रसाद खजांची के यहाँ ठहरा और उनके साथ वायू परमेश्वरनारायण मेहता तथा बाबू विश्वनाथप्रसाद मेहता से मिला और उन्हें सब बातें बताई। वे दोनों महाशय अत्यत विद्यारसिक और उदार थे। वे १२५), १२५) रु० देकर सभा के स्थायी सभासद, बने और रोमन के विरुद्ध आदोलन करने के लिये दोनो महाशयो ने मिलकर ५०) दान दिया। यह धन लेकर मै काशी लौटा तो उत्साह