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मेरी आत्मकहानी
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इसी वर्ष महाराज रौवा ने निज गज्याभिषेक के समय अपने राज्य में नागरी-प्रचार की आज्ञा दी और १०० रु० सभा को दान दिया।

चौथे वर्ष नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में मेरे दो लेख प्रकाशित हुए। वे दोनो लेख ये थे।

(१) भारतवर्षीय आर्य-देश-भाषाओ का प्रादेशिक विभाग और परम्पर संबंध। यह डाक्टर प्रियर्स-लिखित एक लेख का अनुवाद है जो Caleutta Review में छपा था।

(२) नागर जाति और नागरी-लिपि की उत्पत्ति। यह Asiatic Society के जरनल में छपे हुए एक लेख का अनुवाद है।

यहाँ पर कुछ विशेष घटनाओं का उल्लेख कालक्रम के अनुसार उचित जान पड़ता है।

सभा की उन्नति और विशेष कर मेरी ख्याति से चंद्रकांता उपन्यास के लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री को विशेष ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे पंडित रामनारायण मिश्र को शिखंडी बनाकर भॉति भाॅति के आक्रमण तथा दोषारोपण मुझ पर करने लगे। इससे मैं बहुत खिन्न हुआ। चौध वर्ष के आरंभ में जो कार्यकत्ताओ का चुनाव हुआ, उसके लिये बाबू देवकीनंदन ने बहुत उद्योग किया और मैं उदासीन था। अतएव, वे मंत्री चुने गए। पर उनके मंत्रित्वकाल में सभा की प्रगति स्थगित रही। बाहरी सभासदो की संख्या गत वर्ष की अपेक्षा अवश्य बढ़ी पर आय में बहुत कमी हुई। विशेष चंदा तो कहीं से प्राप्त ही न हुआ। सभासदो के बढ़ने पर भी उनके चंदे