यह आत्मकहानी १३ महीनों तक निरंतर सरस्वती पत्रिका प्रकाशित होकर अब पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हो रही है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। जिस समय जैसी भावना से मन में थी और जिन उद्देश्यों से प्रेरित होकर जो काम मैंने किया है तथा जिस प्रकार मेरे कार्यों में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित हुई है उनका मैंने यथातथ्य वर्णन किया है, पर यह सब काम स्मरण शक्ति तथा काशी नागरी-प्रचारिणी सभा की फाइलों को देखकर किया गया है। फिर भी यह सभव है कि अनजाने में, विस्मृति से या भ्राति के कारण किसी घटना के वर्णन में कोई विपर्यय हो गया हो। इसके लिये मुझे दुःख है। पर मैंने अपनी ओर से ऐसा करने का उद्योग नहीं किया है।
इस कहानी के सरस्वती में प्रकाशित होने के समय में मुझे एक विशेष अनुभव हुआ है, जिसका उल्लेख करना आवश्यक जान पड़ता है। मैं देखता हूँ कि हिंदी साहित्य-जगत् में दलबदी का प्राबल्य हो रहा है, जिसके कारण सत्य का हनन तथा प्रोपेगैंडा द्वारा मिथ्या का प्रचार और पोषण हो रहा है। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, पर उनसे कोई लाभ नहीं। केवल इतना ही कहना है कि इस प्रकार के कार्यों से भविष्य का इतिहास विकृत रूप में उपस्थित होगा और तथ्य-निर्णय के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होंगी।