और जिनके द्वारा लेखक साहित्य की उच्चतम शब्द-छटा दिखलाना चाहता हो उसमे निस्संदेह संस्कृत के शब्द आवें, पर फिर भी जहाँ तक सभव हो कठिनतर शब्दों का प्रयोग न हो। जैसा कि हम लोग ऊपर लिख चुके हैं, भाषा मे गंभीरता सस्कृत के कठोर शब्दों के प्रयोग से नहीं आ सकती। सुदर शब्द-योजना और मुहाविरा ही भाषा का मुख्य भूपण है। जैसे यदि किसी प्राकृतिक दृश्य का वर्णन दिया जाय तो उसमे इस प्रकार की भाषा सर्वथा अनुचित है―
“अहा!। यह कैसी ‘अपूर्व और विचित्र वर्षा-ऋतु साप्रत प्राप्त हुई है और चतुर्दिक् कुज्झटिकापात से नेत्र की गति स्तिमित हो गई है, प्रतिक्षण पत्र में चंचला पुश्चली स्त्री की भाँति नर्तन करती है और वैसे ही बकावली उड्डीयमाना होकर इतस्तत भ्रमण कर रही है। मयूरादि अनेक पक्षीगण प्रफुल्लित चित्त से रव कर रहे हैं और वैसे ही दर्दुरगण भी पकाभिषेक करके कुकवियों की भाँति कर्णवेधक टक्कझकार-सा भयानक शब्द करते हैं।”
“इसमें संस्कृत के शब्द कूट कूट कर भर दिए गए हैं। चाहे कैसा ही ग्रंथ क्यो न लिखा जाय उसमें इस प्रकार की भाषा न लिखनी चाहिए। इससे यदि सस्कृत ही लिखी जाय तो श्रेय है। भाषा का दूसरा उदाहरण लीजिए―
“सब विदेशी लोग घर फिर आए और व्यापारियों ने नौका लादना छोड़ दिया, पुल टूट गए, बाँध खुल गए, पंक से पृथ्वी भर गई, पहाडी नदियो ने अपने बल दिखलाएं, बहुत-से वृक्ष कूल-