मेरी आत्मकहानी | ७५ |
ही सरल होनी चाहिएँ, उनमे उच्च हिंदी का विचार आवश्यक नहीं, फिर क्रम-क्रम से भाषा कठिन होनी चाहिए जिसमे कठिन से कठिन भाषा-ग्रंथों के समझने की योग्यता हो जाय। व्यावहारिक लेखो की भाषा पाठशालाओ मे सिखलाना व्यर्थ है, क्योकि उसे तो केवल अक्षर पहचान लेने ही से इस देश के निवासी समझ लेंगे।”
चौथे प्रश्न का विवेचन करते हुए यह लिखा गया था―“हिंदी मे अपभ्रंश शब्द मुख्य दो प्रकार के हैं―एक तो वे जिनका रूप पूर्णतया बदल गया है जैसे हाथी, घी, दही आदि, दूसरे इस प्रकार के हैं जिनके उच्चारण मे ही केवल भेद पड़ गया है जैसे कारन, जसोदा, कुसल आदि। प्रथम प्रश्न के उत्तर मे जो कुछ हम लोग लिख चुके है, उसके अनुसार यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदी में शुद्ध संस्कृत-शब्दो का प्रचार हो अथवा अपभ्रश का। यह बात लेखक की लिखावट पर निर्भर है। जैसे―
(१) उस उत्तंग गिरिश्रृंग पर हस्तियो की श्रेणी से सघन घनमाला का भ्रंम होता है।
(२) उस सूनसान वन में वनैले हाथियो की चिवाड़ सुनाई पड़ती थी।
(३) घृत आहुति।
(४) घी में चमाचम।
(५) मुंह थामे लेता था।
(६) चंद्रमुख इत्यादि।