का पूरा पूरा ध्यान रखना चाहिए कि इन शब्दों को हम अपना रूप दे, उनकी शुद्धि करके तब उनों अपने भाषा-भंडार में सम्मिलित करें। सारांश यह है कि भाषा में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह विदेशी शब्दों को हजम कर सके―पचा सके। उसकी इस पाचन-शकि का हास नहीं होना चाहिए। नहीं तो उसका शरीर जर्जरित होकर मानव-शरीर की भाँति नष्ट हो जायगा। इस काम के लिये भाषा-तत्व वेत्ताओं ने तीन नियम बनाए हैं, जो ये हैं―
(१) जब एक भाषा किसी दूसरी भाषा से कोई शब्द ग्रहण करती है, तब उस शब्द के रूप में ऐसा परिवर्चन हो जाता जिससे वह शब्द दूसरी भाषा में सुगमता से अंतर्लीन हो जाता है। इस सिद्धांत का मूल आधार नाद-यत्र से संबंध रखता है और उसी के अनुसार शब्दों के रूप में परिवर्तन हो जाता है।
(२) जब एक भाषा से दूसरी भाषा में कोई शब्द आता है, तब वह शब्द उस ग्राहक भाषा के अनुरूप उच्चारण के शब्द या निकटतम मित्राक्षर शब्द से जो उस भाषा में पहले से वर्त्तमान रहता है, प्रभावित होकर कुछ अक्षरों या मात्राओं का लोप करके अथवा कुछ नये अक्षरों या मात्राओं के मेल से उसके अनुकूल रूप धारण करता है।
(३) जब एक भाषा से दूसरी भाषा में कोई शब्द आता है, तब उस ग्राहक भाषा के व्याकरण के नियमो के अनुसार उस आगत शब्द का, उस भाषा में पूर्वस्थित अनुरूप शब्दों की भाँति अनुशासन