गई। यह खेद की बात है कि इन पुस्तकों की कोई सूची अब तक प्रकाशित नहीं की गई। सभा ने संयुक्त-प्रदेश की गवर्मेंट से भी खोज का काम कराने की प्रार्थना की थी। प्रांतीय गवर्मेंट ने अपने यहाँ के शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर को लिख दिया कि संस्कृत-पुस्तको की खोज के साथ ही साथ उसी ढंग पर ऐतिहासिक तथा साहित्यिक महत्त्व की हस्तलिखित हिंदी-पुस्तकों की खोज का भी उचित प्रबंध कर दें। इस आज्ञा की अवहेलना की गई और इस संबंध में कोई कार्य नहीं हुआ। तब मार्च सन् १८९९ में सभा ने फिर गवर्मेंट का ध्यान आकर्षित किया। अब की बार गवर्मेंट ने इस कार्य के लिये सभा को ४०० रु० वाषिक सहायता देने की स्वीकृति दी और सभा ने बड़े उत्साह से इस काम को अपने हाथ में लिया। अगले वर्ष यह सहायता ५०० हो गई। कुछ वर्षों के अनंतर १००० रु० वार्षिक सहायता मिलने लगी और अब कई वर्षों से २००० रु० वार्षिक सभा को इस काम के लिये मिलता है।
इस कार्य का सब प्रबंध सोच लेने पर एक निरीक्षक नियत करने की बात उठी। मैं चाहता था कि बाबू राधाकृष्णदास इस काम को करें, पर उन्होंने कहा कि 'मेरी अँगरेजी की योग्यता ऐसी नहीं है कि मैं इसकी रिपोर्ट उस भाषा में लिख सकूँ।' अतएव मैं निरीक्षक चुना गया। इस कार्य की सब शिक्षा मुझे बाबू राधाकृष्णदास से प्राप्त हुई। वे ही इस काम में मेरे गुरु थे। साथ ही उन्होंने इस कार्य में पूरा सहयोग भी दिया। अस्तु, काम प्रारंभ हुआ। पहले वर्ष में हम दोनों व्यक्ति मथुरा और जयपुर में पुस्तकों की खोज में गए।