(क) इस ग्रंथ की अट्ठारहवीं शताब्दी से पूर्व की बोर्ड प्रति अभी तक नहीं मिली।
(ख) इसकी भाषा परिमार्जित और आधुनिक ब्रजभाषा के ही समान है।
(ग) इसमें 'ब्रजभाषा' और 'गुसाई' शब्दों का प्रयोग हुआ है जो कि सोलहवीं शताब्दी से पूर्व व्यवहार में नहीं आते थे।
(घ) पंचांग बनाकर देखने से संवत् १३४४ का बुधवार अशुद्ध और संवत् १८४४ का चंद्रवार शुद्ध निकलता है।
(७) उर्दू-प्रतियाँ हिंदी-प्रतियों की अपेक्षा पुरानी मिलती हैं जिनमें निर्माण काल संवत् १७४४ दिया हुआ है। हिंदी और उर्दू-प्रतियों में निर्माण काल इस प्रकार है-
हिंदी-प्रति में-
संवत तेरह सौ भये चारि अधिक चालीस।
मरगेसर सुध एकादसी, बुधवार रजनीस।।
उर्दू-प्रति में-
संवत सत्रह सै भये, चार अधिक चालीस।
मृगसिर की एकादसी, सुद्धवार रजनीस॥
(च) उर्दू से हिंदी-लिपि में लिखने और लिपिकर्ता के काशीनिवासी होने के कारण बहुत-से शब्दों को बिगाड़कर अवधी रुप दे दिया गया है; अवीधी, थवइ, बहीनी और चारी इत्यादि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उक्त भागवत में आदि से अंत तक ऐसे प्रयोग भरे पड़े हैं। दीर्घ ऊकार का प्रयोग इस प्रति में कहीं नहीं किया गया; अत: भाषा प्राचीन-सी मालूम होती है। परंतु यथार्थ में परिष्कृत है।