पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१०२

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भाट का वचन कदापि स्वीकार नहीं। राजा ने कहा--पाटन में यह हठ न चलेगा। रानी ने कहा- यह हठ नहीं, मेरा निश्चय है, अटल व्रत है। 'परन्तु यह मेरी आज्ञा है।' 'मैं भाट से वचन लेकर आई हूं, उससे करार करके महल में बैठी हूं।' राजा ने जयदेव भाट को बुला भेजा ! भाट के पाने पर लज्जा त्याग रानी सामने आ खड़ी हुई । उसने सतेज स्वर में कहा- 'बावाजी, अापके गुजरात में इसी भांति वचन का पालन होता है ?' जयदेव ने राजा से कहा- 'महाराज, सिसोदिनी करार करके प्राई है ।' 'कैसा करार? 'कि वह जैन उपाश्रय में नहीं जाएगी, गुरुदेव की पद-वन्दना नहीं करेगी।' कुमारपाल क्रुद्ध हो गया। उसने कहा- 'यह नहीं हो सकता।' 'यही होगा महाराज ।' 'क्यों होगा ?' 'मैं वचनों से बंधा हूं।' 'पर तुझे ऐसी प्रतिज्ञा करने का अधिकार किसने दिया ?' 'आपने । आपकी आज्ञा से मैं खांडा लेकर मेदपाट गया था।' 'गया था, तो फिर ? 'जब मैंने देखा कि बिना वचन दिए राजपुत्री ब्याह न करेगी, और गुजरात की प्रतिष्ठा भंग होगी या रक्त की नदी बहेगी तो मैंने प्रतिज्ञा करनी ठीक समझी और अब उसका पालन होना चाहिए महाराज !' 'यह तूने अच्छा नहीं किया। 'आप जैसा समझे पृथ्वीनाथ, परन्तु अब वचन-पालन करना होगा।' 'यह कदापि न हो सकेगा, रानी को गुरुदेव की पद-वन्दना करने उपाश्रय जाना होगा।' 'तो महाराज पहले मेरा सिर कटेगा-पीछे सीसोदिनी रानी का, जो हो सो हो " !