पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/११०

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लात की आग १०७ वही करो। मुझे प्राशा है, अन्त में सब ठीक हो जाएगा। कुछ तो उदय महता के सकेत मे और कुछ देवलदेवी के रत्नभरणों ने उसका मार्ग सरल कर दिया। उसने रो-रोकर पति के वक्ष को प्रांसुओं से तर कर दिया । और उसने उदय महता का मन्त्र पति को सुना दिया। सुनकर अर्णोराज ने भी मन्त्र स्वीकार कर लिया। उदय महता के उद्योग और प्रभाव से अर्णोराज को रस्सी में बांधकर नगर में नहीं घुमाया गया। उनसे बाजार में भिक्षा नहीं मंगवाई गई। प्राणदण्ड की अामा भी नहीं सुनाई गई। अन्त में एक दिन भरे दरबार में रस्सियों से बांध- कर अर्णोराज को लाया गया, जहां उन्हें दण्डाज्ञा दी जाने वाली थी। दरवार खचाखच भरा था। सब राजपुरुष, सरदार, सावंत और प्रमुख नगरवासी उप- स्थित थे। कुमारपाल गद्दी पर विराजमान थे। अर्णोराज रस्सियों में बंधे अयो- मुख सामने खड़े थे। कुमारपाल ने कहा-महाराज अर्णोराज, आपने अकारण अपनी रानी और हमारी बहन का अपमान किया, और गुजरात के सिर पर लाल मारी । आपकी इस लात का मूल्य चुकाने को गुजरात के अनेक वीरों के प्राण गए। आपके इस अपराध की सजा मृत्यु ही है। परन्तु मन्त्रीवर के तथा गुरु हेमचन्द्र के कहने से मैं तुम्हें प्राणदान देता। फिर भी तुम्हें थोड़ा दण्ड तो मिलना ही चाहिए। तुम हमारे बहनोई और सम्बन्धी हो इसलिए सब बातों पर विचार कर मैं अाशा देता हूं कि जिस जीभ से तुमने हमारी बह्न को गाली दी है वही तुम्हारी जीम इस समय काट ली जाए। दण्डाज्ञा सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। जलाद छुरी और संडासी लेकर आगे बढ़े। उन्होंने अर्णोराज की जीभ संडासी से पकड़कर खींच ली। परन्तु इसी समय देवलदेवी रक्षा करो ! क्षमा करो !' चिल्लाती हुई सब अव- रोधों को दूरकर बीच सभा में प्रा खड़ी हुई। उसने भूमि में पछाड़ खाकर राजा से कहा-~~भाई क्षमा करो, गुर्जरेश्वर! यह तुम्हारे बहनोई हैं, प्रतापी राजा अर्णोराज हैं। हे भाई, मैं तुम्हारी बहन हूं, दुखियारी बहन ! निस्सन्देह यह सब उदय महता का मन्त्र था। परन्तु बहन को इस प्रकार अन्तःपुर से वाहर राजसभा में प्राकर विलाप करती देख गुर्जरेश्वर कुमारपाल ने कहा-बहन, तूने यहां आकर राजकुल की मर्यादा भंग की है । तू अन्त.पुर