पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/११३

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१०८ ऐतिहासिक कहानिया में जा। राजाज्ञा हो चुकी । वह अब नहीं लौटाई जा सकती। किन्तु देवलदेवी क्रुद्ध होकर गरजी- क्यों नहीं लौटाई जा सकती ? बहनोई को दण्ड देना न्याय नहीं है । भाई, तुम अपनी एक बहन को विधवा कर चुके हो अव दूसरी को भी विधवा करोगे तो तुम्हारा यश डूब जाएगा। कुछ तो विचार करो, गुर्जरेश्वर! परन्तु कुमारपाल टस से मस न हुए। उन्होंने गम्भीर स्वर में उत्तर दिया- राजाज्ञा हो चुकी । अर्णोराज, अपना दण्ड भोग । जल्लाद अभी भी उनकी जीभ को संडासी से पकड़े खड़ा था। अब उसकी छुरी जीभ की ओर बढ़ी । परन्तु इसी समय कलिकाल-सर्वज्ञ यति हेमचन्द्राचार्य उठकर बोले-राजन् ! समर्थ पुरुष दण्ड देते हैं, पर जो उनसे भी अधिक समर्थ होते हैं वे क्षमा करते है। अर्णोराज को आपने शस्त्र से जीता। अब क्षमा से जीतिए और दुहरी विजय का कीर्ति-लाभ कीजिए। गुरु के वचन सुनकर कुमारपाल ने अर्णोराज के बन्धन खोलने की प्राज्ञा दी, और कहा--अर्णोराज गुरु की आज्ञा से और बहन के कहने से मैं तुम्हे क्षमा करता हूं । इसी समय देवलदेवी ने पति के निकट जा कुछ संकेत किया। संकेत समझ अर्णोराज बोले-गुर्जरेश्वर ! आपने मुझे बल से जय किया, इसका मुझपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। परन्तु प्रापकी क्षमा ने मेरा हृदय बदल दिया है । आपने मुझे क्षमा दी है । इसमें मैं भी आपको कुछ देना चाहता हूं- में सम्भरीपति अर्णोराज हूं। कुल-शील और राज्य-वैभव में आपके ही समान हूं। मैं चाहता हूं कि इस समय जो हमारे-आपके बीच नए सम्बन्ध जुड़े हैं वे और दृढ़ हों-इसलिए मैं अपनी षोडशी पुत्री मीनलकुमारी प्रापको देता हूं। आप स्वीकार कीजिए। अर्णोराज के ये वचन सुन कुमारपाल गद्दी से उठ खड़े हुए। उन्होने भुजाओं में भरकर अर्णोराज को अपनी छाती से लगाया। फिर बहनोई की भांति उनके कण्ठ में बांह डाल उन्हें महलों में ले चले । पाटन में धूमधाम, गाजे-बाजे, गोट- ज्योनार की रेल-पेल हो गई-बहनोई अर्णोराज के स्वागत-सत्कार के उपलक्ष्य में भी और अर्णोराज की पुत्री के कुमारपाल के साथ शुभ विवाह के उपलक्ष्य में भी।