पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/११२

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लात की आग वही करो। मुझे आशा है, अन्त में सब ठीक हो जाएगा। कुछ तो उदय महता के संकेत से और कुछ देवलदेवी के रत्नभरणों ने उसका मार्ग सरल कर दिया। उसने रो-रोकर पति के वक्ष को प्रासुओं से तर कर दिया । और उसने उदय महता का मन्त्र पति को सुना दिया । सुनकर अर्णोराज ने भी मन्त्र स्वीकार कर लिया। उदय महता के उद्योग और प्रभाव से अर्णोराज को रस्सी में बांधकर नगर में नहीं घुमाया गया। उनसे बाजार में भिक्षा नहीं मंगवाई गई। प्राणदण्ड की आजा भी नही सुनाई गई। अन्त में एक दिन भरे दरबार में रस्सियों से बांध- कर अर्णोराज को लाया गया, जहां उन्हें दण्डाज्ञा दी जाने वाली थी। दरवार खचाखच भरा था। सब राजपुरुष, सरदार, सावंत और प्रमुख नगरवासी उप- स्थित थे। कुमारपाल गद्दी पर विराजमान थे । अर्णोराज रस्सियों में बंधे अधो- मुख तामने खड़े थे। कुमारपाल ने कहा-~-महाराज अर्णोराज, आपने अकारण अपनी रानी और मारी बह्न का अपमान किया, और गुजरात के सिर पर लात मारी । अापकी इस लात का मूल्य चुकाने को गुजरात के अनेक वीरों के प्राण गए। आपके इस अपराध की सजा मृत्यु ही है। परन्तु मन्त्रीश्वर के तथा गुरु हेमचन्द्र के कहने से मैं तुम्हें प्राणदान देता। फिर भी तुम्हें थोड़ा दण्ड तो मिलना ही चाहिए। तुम हमारे बहनोई और सम्बन्धी हो इसलिए सब बातों पर विचार कर मैं प्राज्ञा देता हूं कि जिस जीभ से तुमने हमारी वहन को गाली दी है वही तुम्हारी जीभ इस समय काट ली जाए। दण्डाज्ञा सुनते ही सभा में सन्नाटा छा गया। जलाद छुरी और संडासी लेफर आगे बढ़े। उन्होंने अर्णोराज की जीभ संडासी से पकड़कर खींच ली। परन्तु इसी समय देवलदेवी 'रमा करो! क्षमा करो !' चिल्लाती हुई सब अव- रोवों को दूरकर बीच सभा में श्रा खड़ी हुई। उसने भूमि में पछाड़ खाकर राजा से कहा--भाई क्षमा करो, गुर्जरेश्वर ! यह तुम्हारे बहनोई हैं, प्रतापी राजा प्रर्णोराज हैं । हे भाई, मैं तुम्हारी वहन हूं, दुखियारी बहन ! निस्सन्देह यह सब उदय महता का मन्त्र था। परन्तु बहन को इस प्रकार अन्तःपुर से बाहर राजसभा में आकर विलाप करती देख गुर्जरेश्वर कुमारपाल ने कहा- बहन, तूने यहां आकर राजकुल की मर्यादा भंग की है । तू अन्त:पु