पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१२१

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कुम्भा की तलवार इस कहानी में एक राजपूत बालिका और उसकी वोर मा ता के साहस और तेज की अमर गाथा है। चित्तौड़ के अजेय दुर्ग का पतन हो चुका था। महाराणा उदयसिंह लापता थे और वीर जयमल फत्ता ने प्राणों की आहुति दे दी थी। किले पर दखल कर सम्राट अकवर उसे एक अधिकारी को सौंप आगरा लोट पाए थे। अधिकारी को आजा थी कि आसपास के सभी किलों को प्रवीन कर ले और उनके अधिपतियो को, जो राणा के सरदार थे, या तो अपने अधीन कर ले या युद्ध में पराजित कर ले । इस कार्य के लिए एक भारी सेना वहां छोड़ भी दी गई थी। रणथम्भोर का दुर्ग अत्यन्त अजेय था। वह एक दुर्गम विशाल चट्टान पर 'निर्भयता से खड़ा था। दुर्ग पर चढ़ने को मीलों तक कहीं भी सुविधा न थी। केवल एक ढालू नाले द्वारा, जो मुड़कर इधर-उधर बहुत टेढ़ा हो रहा था, एक 'भयानक रास्ता किले तक गया हुआ था। इसके चारों ओर दुर्गम अरावली की अनगिनत श्रेणियां थीं। इसकी रक्षा राव सुर्जन हाड़ा की नवविधवा पत्नी कर रही थी। इस युद्ध मे हाड़ा सरदार पुत्रसहित काम पाए थे। किला घेर लिया गया था। सिंहिनी रानी पति और पुत्र का घाव छिपाए यल से किले की रक्षा में तत्पर थी। इस समय मेवाड़ में मुगल सिपाही ही सिपाही नजर आते थे। इस किले में महाराणा कुम्भा की वह रत्न जटित तलवार धरोहर के तौर पर रखी थी जो उन्हें मालव- शाह की विजय में भेंट दी गई थी। सिंहविक्रम सुर्जन के पूर्वजों ने सैकड़ों बार प्राण देकर भी इस तलवार की रक्षा की थी। परिस्थिति गम्भीर होती चली जा रही थी क्योंकि प्राक्रमण बरावर जारी थे। खाद्य सामग्री और युद्ध-सामग्री बराबर क्षय हो रही थी और शत्रुओं के हटने की कोई पाशा न थी। मुगल सेनापति किले की चाबियो मांग चुका था, जिसे देने से रानी ने दर्प से इन्कार कर दिया था। उसके पूर्वजों पर जो भार