पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१४२

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चाणवधू "भाई, अब क्या त्योहार है ?' 'तुम लोग परदेशी मालूम होते हो, प्राज मुहर्रम है।' 'ओह हमें, यह नहीं मालूम था, हम लोग अभी-अभी पा रहे हैं, परन्तु हम लोग क्या यह सब देख सकते हैं ?' 'अभी सुलतान की सवारी आ रही है, तुम्हें कौन रोकता है, खुशी से देखो।' 'सच सुलतान के दर्शन तो हमें अनायास ही हो जाएंगे। अरे यह सुलतान की सवारी आ रही है !' (कान में) 'कुंवर, यही समय है।' 'कुमारी, क्षण भर ठहरो, और निकट ठहरो। पामो, उस घर की आड़ में खड़ी हो जानो।' (एक तीर छांटकर)-'यही यथेप्ट होगा। कुंवर, अपने आखेट को मैं ही विद्ध करूंगी।' 'और कौन यह साहस करेगा कुमारी ! पर सुलतान को ठीक पहचान लेना।' 'वही न, जो श्वेत अश्व पर सवार है ।' 'वही जिसकी हरी पगड़ी में हीरा चमक रहा है।' (तीर धनुष पर सन्वान करके) 'कुंवर देखना, सूअर विद्ध होता है या नहीं।" 'तुम निर्भय वाण छोड़ो कुमारी।' 'वह मारा, तीर सुलतान की छाती के आर-पार हो गया! वह घोड़े से गिर गया ! हलचल मच गई। देखो वे इधर ही पा रहे हैं ! कुमारी, अपना बर्थी सम्भाले रहो। मेरे बाएं कक्ष से दूर न रहता, सीधी बढ़ी चलो अभी फाटक खोलना है। 'कुवर सावधान !' (एक यवन को बर्खे से मारती हुई) 'कुमारी, मावधान !' (तलवार से एक सिपाही को काटकर) 'कुवर बढ़े चलो !' 'आह, द्वार पर मस्त हाथी खड़ा है, सारी सेना दौड़ी आ रही है।' 'चिन्ता नहीं !' (बढ़कर एक ही तलवार के वार से हाथी की सूंड काट डालती