पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१४१

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राजपूत कहानियां लग रहे हैं, मेरे पांच सहन शूर छिपे तैयार खड़े है, केवल एक घण्टे का मार्ग है । क्या तुम स्वयं तमाशा देखना चाहती हो ?' 'सहर्ष । 'तव चलो, क्या पिता से प्राज्ञा लोगी?' 'आवश्यकता नहीं।' 'तव चलो।' 'कुमारी, समस्त सेना कोट के बाहर खाई में छिपी रहने दो, हम लोग दुर्ग में चलेगे।' 'अकेले ?' 'क्या भय लगता है ? 'नहीं कुमार, तुम्हारे साथ भय !' 'कुमारी, तुम्हारा असली आखेट तो वही है।' 'तब चलो।' 'विजयसिंह !' "महाराज !' "संकेत का शब्द सुनते ही दुर्ग में बलपूर्वक घुस पड़ना ।' "जो प्राज्ञा।' कुमारी !' 'कुंबर !' 'चलो।" 'चलो।' 'कुमारी तुम्हारा अश्व बड़ा चपल है, इसे तनिक वश में रखो नहीं तो नागरिक लोग इधर ही देखने लगेंगे, यह शत्रुपुरी है ।' 'कुंवर, आज इसे स्वच्छन्द विचरण करने दो।' 'क्षणभर ठहरकर देखो कितनी भीड़ है, आज सभी मस्त हो रहे हैं।' 'ठहरो, देखो ये दोनों सवार हमें धूर-धूरकर देख रहे हैं, सन्देह न करने लगें, आमो उनके निकट चलो।'