पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१६५

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सामाजिक कहानिया पिना स्वार्थ-साधन ही किया, और तुम्हारे अधिकार पर प्राघात भी किया। कहो, इसका प्रतिकार क्या होगा ?' 'इसपर विचार करने को सम्पूर्ण जीवन पड़ा है ! इसके लिए जल्दी क्या है ? विद्यानाथ उदास और शिथिल हो गए। और सुषमा का मुह बादलों से घिरे हुए सांध्य प्रकाश के समान गम्भीर हो गया। बहुत देर बाद विद्यानाथ ने कहा-सुषमा, हम लोग कैसे मिलकर एक हो सकते हैं ? सुषमा हंसी। उसने कहा-उस वेद-मन्त्र की व्याख्या के अनुसार, जो विवाह के समय पंडितजी ने की थी, जैसे दो वर्तनों का जल एक में मिलकर एक हो जाता है, उसी भांति ! 'सुषमा, हंसी मत करो ! मेरे दुःख को देखो !' 'देख रही हूं ! पर हम एक तो है ही। आज से नहीं तभी से जब मैं इतनी मी थी ! मेरी सारी जमा पूंजी तो आप ही की है। अापने मुझे अक्षराभ्यास कराया, और कालेज की डिग्री दिलाई। आपके विचार, आपकी प्रतिभा आपके आदर्श, सभी तो मेरी नस-नस में है । आप ही तो मुझे अपने मस्तिष्क की प्रतिलिपि कहा करते थे। 'वह सब तो है । पर तुन्हारी यह 'न' ?' 'पाप मेरे गुरु हैं, और अब पति भी। आप मेरे तन-मन के स्वामी है। उस अभागी 'न' के साथ आप जैसा ठीक समझे, सलूक करें। मैं 'न' नहीं कहूंगी !' सुषमा की आंखों में उज्ज्वल मोती के समान दो अश्रु-बिन्दु छलक पाए। पर उसके होंठों पर वैसी ही मृदु, मन्द मुस्कान थी । विद्यानाथ ने मर्मपीड़ित होकर कहा-सुषमा, मैं देख रहा हूं कि वह 'न' तुम्हारे हृदय में उस स्थान पर आसीन है जहाँ मेरे हृदय मे तुम हो । वह मेरी अजेय प्रतिद्वन्द्वी है, सुपमा ! मै उसे ईर्ष्या की नजर से देख भर सकता हूं। उस उस स्थान से च्युत करने की मेरी सामर्थ्य नहीं है। कुछ देर चुप रहकर उन्हो फिर कहा-मैं जीवन भर एक उद्ग्रीव योद्धा की भांति रहा। मैंने जीवन भ युद्ध किए, और कमी साहस न खोया । उस दिन जब तुम्हारी जीजी को अकस्मात