पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१६४

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सुख-दान 'मैंने क्या आगे बढ़कर अपने मन से अपने को अापको समर्पण किया है ? क्या मैंने स्वेच्छा से, प्रसन्नतापूर्वक आपसे ब्याह किया है ?' 'परन्तु तुमने विरोध भी तो नहीं किया !' 'विरोध नहीं किया ? 'कहाँ ? हर वार, जब-जव वाबूजी ने व्याह का प्रस्ताव किया, मैने यही कहा- सुषमा से पूछ लीजिए ! और हर बार उन्होंने कहा-'वह राजी है। अपने इस सौभाग्य को वह अस्वीकार नहीं कर सकती।' सुषमा ने किम कटाक्ष करके वही धवल हास्य बिझेरा । उस हास्य का करुण और द्रवित भाव देख विद्यानाथ क्षोभ और लाज ने अधोर हो उठे। उनके मुंह से बात नहीं निकली। सुपमा का हाथ उनके हाथ से छूट गया। सुषमा ने फिर उसे स्नेह से पकड़ लिया और तनिक और उनके पास खिसककर कहा-बाबूजी की बुद्धि का नाप-तोल मैं जानती हूं। उन्होंने जब-जब विवाह के सम्बन्ध में मेरी राय पूछी, मैने एक मौन हास्य में उसका उत्तर दिया । उसका अर्थ उन्होंने जो भी समझा हो। 'पर मुषमा तुम्हें खुल्लमखुल्ला 'न' कहना चाहिए था ।' 'किनलिए? बाबूजी का अपमान करने के लिए? उनका दिल तोड़ने के लिए ? ऐसा मैं नहीं कर सकती थी। आपने मुझे ऐसी शिक्षा नहीं दी थी । यदि मैं मुंह खोलकर 'न' कहती तो प्रापको शिक्षा को लजाती।' 'तो तुम्हें मुझसे कहना था । 'मापसे ?' सुषमा इस बार बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने वैसी ही स्निग्धा, कोमल वाणी में कहा- आप तो मेरे मन की राई-रत्ती सब कुछ जानते हैं, उसी भांति जैसे मैं आपके मन की। पाप मेरी 'न' जानते थे, फिर भी 'हां' की प्रतीक्षा में थे। मैं आपकी प्रतीक्षा को जानती थी, फिर 'न' कैसे कहती? 'लेकिन... 'अच्छा, तो आप इन्कार करते हैं ? आप मेरे साथ भी शतरंज की चाल..." 'नहीं नहीं, सुषमा, शतरंज की चाल नहीं ! जब तुम मेरे भीतर-बाहर की सब बात जानती हो तो मुझे कहना ही क्या है ! मैं स्वीकार करता हूं कि मैने