पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१६८

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सुख-दान ही चिरविदा करने का प्रसंग उपस्थित हो गया तो अपने साहस और धैर्य पर स्वयं मैं ही पाश्चर्यचकित हो गया। परन्तु अब तुम्हारे इस 'न' के सम्मुख, सुषमा, एक हारा हुआ, तिरस्कृत और ऐसा भाग्यहीन पुरुष हूं, जिसका सब- कुछ लुट चुका, सब-कुछ नष्ट हो चुका हो । विद्यानाथ चुप हो गए। सुषमा भी निर्वाक, निस्पंद बैठी रही। थोड़ी देर बाद विद्यानाथ ने सुषमा का हाथ अपनी ओर खींचकर कहा--सुषमा, प्राओ, तनित-मेरे निकट "और निकट ! जो कुछ भी साहस अभी बचा है, उसका मैं उपयोग कर खू कि हम लोग कहां तक एक-दूसरे को सुख-दान कर सकते हैं ! विद्यानाथ के हाथ के उस हल्के खिंचाव से सुषमा निर्विरोध खिची उनके हृदय के निकट तक चली गई। विद्यानाथ ने ऐसा अनुभव किया, जैसे अति दूर आकाश में उड़ती हुई पतंग अकस्मात् कट गई हो, और वह उसकी ढीली डोर को खींचकर अपने पास ढेर कर रहे हों। सुहाग-रात के वाद का वह दूसरा दिन नव-दम्पति के लिए पहाड़ हो गया। दोनों एक बहुत भारी बोझ-सा हृदय में लिए फिरते रहे। विद्यानाथ उस दिन कालेज नहीं गए । तमाम दिन लाइब्रेरी में बैठे रहे। सुषमा दिन भर हारमो- नियम पर उंगलियां चलाती रही । बीच-बीच में साहस करके विद्यानाथ सुषमा के कमरे में जा जितना सम्भव होता उतने उत्साह से कहते-दाह, कितना अच्छा बजा रही हो ! बहुत मंज गया है अब तुम्हारा हाथ ! गाओ, गाग्रो ! यह राग तुम्हारे कण्ठ से बहुत मधुर लग रहा है। तब सुषमा मुस्कराकर एक बार सिर्फ एक दिन पूर्व के उस नवीन पति को जिससे कुछ और ही रूप में वह परिचित थी, कुछ-कुछ सहमी और कुछ-कुछ लजाई आंखों से मुस्कराकर देखती और जैसे किसी प्राने वाली विपत्ति से घबरा रही हो, झट स्वर मिलाकर गाने लगती। विद्यानाथ 'बाह-वाह' करते। फिर एकाएक जैसे जान बचाकर भाग खड़े होते। लाइब्रेरी में आकर हांफते-हांफते कुर्सी पर पड़ जाते। वे सोचते : यह क्या ठीक हुआ ? सुषमा को बुरा नहीं लगेगा ? गीत खत्म होने के पहले ही मैं भाग क्यों आया ? कैमा माधुर्य है उसके कण्ठ में ! पर वे फिर तुरन्त जाना चाहकर भी जा न पाते। उनके जाने पर सुषमा तुरन्त ही गाना बन्द कर चुपचाप कोच पर लेट ।