पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१९४

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बाहर और मीतर १८५ होगी । उस दिन मैं शकुतला को कई बार पढ़ गया। पर जब वह आई तो मैंने अपनी प्राशा के बिलकुल उल्टा पाया। लेवेंडर और सेंट का नाम न था। वह एक साधारण, किन्तु उज्ज्वल साड़ी पहने थी। पैर में चप्पल थे। बाल विखरे तो न थे, पर बहुत टीमटाम से संवारे भी न थे। उसका वेश बिलकुल सीधा-सादा था। हां, उसे उज्ज्वल और सोफियाना कह सकते है। उसने न नमस्ते किया, न हाथ जोड़े। वह सिकुड़कर पलंग के पास भी खड़ी नहीं हुई, आकर धीरे से कुर्सी खींचकर उसपर बैठ गई। इसके बाद तनिक मुस्कराकर उसने कहा--कहिए, आप प्रसन्न तो हैं ? भई वाह, यह कैसी नई-नवेली वधू ? मैंने प्रांख फाड़कर उसकी ओर देखा। देखते ही अांखें जल उठीं। वह न तो वैसी सुन्दर ही थी, और न उसका रग ही गोरा था । मैं क्षणभर ही में अपने क्लास की सब युवतियों से उसका मिलान कर गया । भला, कहां वे परियां और कहां यह ? मेरा हृदय तिलमिला उठा। मैंने ताने के तौर पर कहा-क्या आप ऊपारानी की कोई दासी हैं ? क्या सन्देश लाई हैं पाप ? 'यही कि ऊषारानी के स्थान पर आप मेरा स्वागत-सत्कार करें।' 'पाप है कौन ?' 'ऊषारानी मेरी दासी हैं।' 'पापकी ?' 'जी हां, और उनका यह फैसला है कि मैं उनके पति महाशय को अपना दास समझू । आप ही शायद उनके पति हैं ?' उस साधारण, प्रतिभा-हीन मुख से ऐसी करारी, चुटीली बात सुनकर मैं दंग रह गया। वह नई-नवेली की मुलाकात का पुराना डिजाइन हवा हो गया । मैं न गुस्सा कर सका, न मेरे मुंह से कोई बात ही निकली। मैं चुपचाप उस मुह- जोर वालिका के मुस्कराहट-भरे, फड़कते होंठों को देखने लगा। उसे देखकर मै खड़ा नहीं हुआ, उसका स्वागत नहीं किया, उसके साधारण रूप की अवहेलना की, इसके कारण जो उसकी आंखों में एक चमक-जो उन चुभती हुई तीखी बातों के साथ निकली थी-देखकर मैं उसके रुपाब में आ गया। मैं सोचने लगा : इसी तरह क्या स्त्रियों का आदर किया जाता है ? यही क्या मेरी शिक्षा और सभ्यता है ?