पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१९५

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१८६ समस्या कहानिया ऊपा ने फिर कहा-~-समझे आप ? क्या आपको श्रीमती ऊपारानी के आज्ञा-पालन में कुछ आपत्ति है ? 'कुछ भी नहीं।' अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया। 'तब नाप पलंग से खड़े हो जाइए। आपने एम० ए० तक शिक्षा पाई, उच्च संस्कृति के लोगों में रहे, पर आपको इतनी तमीज़ न पाई कि स्त्रियों का मान कैसे किया जाता है।' वाप रे, नई दुलहिन से डांट खाकर, मैं सचमुच लज्जित-मा होकर, उठकर खड़ा हो गया; पर फिर भी अपनी अकड़ तो कायम रक्खी। मैंने कहा- अब क्या करना होगा? उसने एक कुर्सी की ओर संकेत करके कहा--बैठिए, धवराते क्यों हैं ? यह खूब रही, नववधू को देखकर मैं घबराता हूं। मैंने कुर्मी पर बैठकर कहा-घबराता क्यों हूं? वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर उसने परीक्षा की, कालेज की, कालेज के जीवन की, भविष्य की, स्वास्थ्य की, न जाने क्या-क्या बातें करनी शुरू कर दी। मैं तो जैसे खो गया। उस रात्रि के धीमे प्रकाश में मैंने देखा, मैं किसी अत्यन्त स्नेही मित्र से-जो अत्यन्त बुद्धिमान्, कुशाग्रबुद्धि, वाक्पटु और मृदु- भाषी है-वातें कर रहा हूं। मेरा विद्रोह तो गायब हो चुका था। थोड़ी ही देर में मैंने डरते-डरते उसका हाथ पकड़कर कहा-~~-ऊषारानी, मुझे क्षमा 1 करो। वह मुस्कराकर मेरी ओर देखने लगी। मैंने फिर कहा-क्षमा करो देवी । उसने फिर कहा-किस अपराध की क्षमा ? मैंने कहा-मेरी अांखें तुम्हें देखते ही जल उठी थीं। मैंने तुम्हारा बाहरी रूप देखना चाहा था। अब से कुछ मिनट पहले तक मैं नहीं जानता था कि स्त्री के भीतर एक और चीज़ रहती है । मैं तो कुछ और ही सोच रहा था । उसने हंसकर कहा-एक गुड़िया-सी सुन्दर दुलहिन, जिसकी एक नाक, दो कान, एक मुंह, दो आंखें, सफेद चमड़ी, नन्हा-सा शरीर, यही न ? 'लगभग यही, पर थोड़ा और भी कुछ ।' 'वह कालेज की संगिनियों का प्रदर्शन ?' मैं चौंका, मेरे मन की बात यह कैसे जान गई ? वह मुस्कराने लगी।