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बौद्ध कहानिया
 


बाहर निकलने देते थे और न भीतर घुसने देते थे। तोरण के इधर-उधर बहुत से नागरिक सेना का यह अकस्मात् प्रस्थान देख रहे थे। एक पुरुष ने पूछा- क्यों भाई, जानते हो, यह सेना कहां जा रही है ? उसने कहा---न, यह कोई नहीं जानता। अश्वारोही दल निकल गया। पीछे कई सेना-नायक धीरे- धीरे परामर्श करते चले गए।

क्षण भर में सम्वाद फैल गया। मगध के प्रतापी सम्राट शिशुनागवशी बिम्बसार ने वैशाली पर चढ़ाई की। गंगा के दक्षिण छोर पर दुर्जय मागध सेना दृष्टि के उस छोर से इस छोर तक फैली हुई थी। इस सेना मे १० हजार हाथी, ५० हजार अश्वारोही और पांच लाख पैदल थे।

वैशाली के लिच्छविगण तन्म का प्रताप भी साधारण न था । गंगा के उत्तर कोण पर देखते-देखते सैन्य-समूह एकत्रित हो गया। लिच्छवियों के पास ८ हजार हाथी, १ लाख अश्वारोही और ६ लाख पैदल थे।

तीन दिन तक दोनों दल आमने-सामने डटे रहे। तीसरे दिन लिच्छवि लोगों ने देखा, उस पार डेरों की संख्या कम हो गई है। निपुण सैनिक सहस्रों घाट से पार पाने की तैयारी कर रहे हैं, यह समझने में देर न लगी। दोपहर होते-होते मगध सेना गंगा पार करने लगी। लिच्छवि-सेना चुपचाप खड़ी रही। ज्यो ही कुछ सेना ने भूमि पर पैर रखा त्यों ही वैशाली की सेना जय-जयकार करते बढ़ चली, मानो सहस्र उल्कापात हुए हों । मेघ-संघर्षण की तरह घोर गर्जना करके दोनों सेनाएं भिड़ गई। मागध सेना की गति रुक गई। वाण, बर्खे और तलवारों की प्रलय मच गई। उस दिन, दिन भर संग्राम रहा । सूर्यास्त देख, दोनों सेनाएं पीछे को फिरीं ।

२ मास से नगर का घेरा जारी है । बीच-बीच में युद्ध हो जाता है । कोई पक्ष निर्बल नहीं होता। नगर की तीन दिशाएं मागध-शिविर से घिरी हैं। बीच मे जो सबसे बड़ा डेरा है, उसके ऊपर सोने का गरुड़ध्वज अस्त होते सूर्य की किरणों से अग्नि की तरह दमक रहा है। उसके आगे एक स्वर्ण-पीठ पर गौर वर्ण सम्राट् विराजमान है। निकट एक-दो विश्वासी पार्श्वद है । सम्राट अति सुन्दर, बलिष्ठ और गम्भीरमूर्ति हैं। नेत्रों में तेज और स्नेह, दृष्टि में वीरत्व