कहानी खत्म हो गई आई हूं। दीवानजी उसे मेरे पास ले आए। धड़कते हृदय से मैं सोच रहा था--- अब यह यहां किसलिए आई है। परन्तु, उसने एक साधारण रैयत की भालि अधीनता दिखाकर कहा- सरकार, मैं असहाय विधवा स्त्री हूं, मेरे पिता ने मरते दम तक रियासत की ईमानदारी से सेवा की है, अव न मेरे मां-बाय हैं, न कोई हितू-सम्बन्धी । पाप गांव के राजा हैं, इसीसे मैं आपकी शरण आई हूं। मेरा दम घुट रहा था। पर मैंने मन पर काबू रखकर पूछा-क्या चाहिए तुम्हे ! 'सरकार एक भैस यदि मुझे खरीद दे तो उसका दूध-घी वेचकर अपना भी पेट पाल लूंगी, सरकार का भी कर्जा चुका दूंगी।' मैंने बिना किसी आपत्ति के उसे भैस खरीदवा दी। वह कहती तो मैं उसे दो-चार हजार रुपए भी दे सकता था। मैं जानता था कि यह उसका अधिकार था। पर उसने तो मुझसे केवल वही मांगा जो कोई एक साधारण रैयत जमी- दार से मांगती है। अब यह कैसे कहूं कि उसकी यह मांग मेरी प्रतिष्ठा के लिए ही थी या उसकी प्रतिष्टा के लिए। उसके बाद वह और दो-चार बार मुझसे एकान्त में मिली । और व्याह की दात पर उसने जोर दिया। मैंने टालटूल की और अन्त में मैंने साफ इन्कार कर दिया। उस दिन अकस्मात् पुलिस दलदल-सहित उसे लेकर गढी में आ गई। मामला क्या है, इसे जानने के लिए उसके साथ बहुत लोगों की भीड़ थी। सव भाति- भाति की बातें कर रहे थे। पुलिस वालों ने उसे मारा-पीटा भी था। चोट के निशान उसके मुंह और शरीर पर थे। उसके वस्त्र जगह-जगह फट गए थे। बाल उसके बिखरे थे और चेहरे पर मुर्दनी छाई थी। अांखें उसकी फटी-फटी सी हो रही थीं। शरीर में जगह-जगह खून लगा था। अोठों से भी खून वह रहा था। पुलिस का अफसर सुशिक्षित तरुण था। वह मुझे जानता था। कहना चाहिए, मेरा मित्र था। पुलिस ने एक औरत के साथ मारपीट की है मेरे गाव मे आकर ?-यह वात जानकर गुस्से से मैं लाल हो गया। मेजर वर्मा उस दिन वही थे । गुस्सा इन्हें भी बहुत हुआ। हम लोगों ने पुलिस को खूब खोटी-खरी
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