म जीवन्मृत २२७ पौत पर सैनिक गर्व से उद्ग्रीव होकर चढ़ गया । सहस्रावधि नर-नारियों ने हर्ष और प्राशा में भरकर उल्लास प्रकट किया, साधृवाद दिए, पर मानो प्रशान्त महासागर में एक साधारण चक्कर खाकर ही वह दृढ़ पोत जल-मग्न हो गया और देखते ही देखते उसका अस्तित्व विलीन हो गया। रह गया अकेला मैं- साधन, शक्ति और अवलम्ब से रहित, एकमात्र तस्ते के एक टुकड़े के सहारे तैरना हुआ। अन्ध निशा मे, एक सुदूर तारे के क्षीण प्रकाश में, उस दुर्धर्ष महाजन- राशि पर, जीवन के मोह के कच्चे धागे के आसरे भटकता रहा । १५ वर्ष तक अनन्त हिंस्र जीव-जन्तुओं का प्राकमण, हड्डियों में कम्प उत्पन्न करने वाला शीत और नस-नस से प्राथ खींच लेने वाली पर्वत-समान जलराशि की उत्तङ्ग तरी के थपेड़े उस असहाय अवस्था में सहन करता रहा । १५ वर्ष तक ! और कितना भयानक, कितना रोमांचकारी, कितना अद्भुत, यह जीवन का मोह रहा ! ये प्राण कितने बहुमूल्य प्रमाणित हुए। क्या पृथ्वी पर और कोई मनुष्य भी इस तरह जिया होगा? प्रकृति की एकान्त स्थली पर मैंने अपना शैशव और यौवन का प्रारम्भ व्यतीत किया। वहां एक ही रंग था-त्याग, शान्ति, तप और निर्वासना । जब तक शैशव पर विधान का शासन रहा, मेरे बाहरी पीत क्सन और अन्तस्तल का भी एक रंग रहा, पर यौवन के विकास ने बाहर-भीतर में भेद डाल दिया। हां, संसर्ग तो कुछ न था जो था साधारण-परन्तु नैसर्गिक वासनाओं ने प्रस्फुटित होते-होते उत्स त्याग, तप और निर्वासना-सबसे विद्रोह करना शुरू कर दिया। मैं ब्रह्मचारी था। उस तपस्थली पर मेरे जैसे बहुत थे, पर हमारे गुरु और उपजीवी ब्रह्मचारी न थे। हम नैसर्गिक रह ही न सके, हमारी सादगी में भी एक शान थी, हमारे ब्रह्मचर्य में भी एक फैशन था, हमारे त्याग-तप में भी प्रदर्शन था । जगत् के सर्व साधारण कैसे जीवन के पथ पर बढ़ते हैं, मैं नहीं जानता; पर हम सभी में हास्च, उल्लास, गोपनीय वासनाएं तथा तमोमयी भावनाएं थीं। उस आश्रम में मैं ही सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ हूं। मुझे सर्वश्रेष्ठ होना ही चाहिए- यह मैं शीघ्र ही समझ गया। कैसे ? यह नहीं बताऊंगा। प्राचार्य का पुत्र था । राजपुत्र तो जन्म ही से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। इसमें अनुचित क्या? मैं सर्वप्रथम, सर्वश्रेष्ठ पुरुष होकर उस दुर्धर्ष याश्रम से बाहर प्राया है,
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