२२८ राजनीतिक कहानिया ससार कैसा सुन्दर था ! मैं देखते ही मोहित हो गया। वह मेरे ऊपर श्रद्धा, आशा और प्रेम विखेर रहा था। मैंने जाना भी न था कि मैं जीवन में इतना आदर पाऊंगा। वह आशातीत आदर पाकर मैं गर्व से नाच उठा। मैंने अच्छी तरह अपनी मानसिक दुर्बलताएं अपने पीले उत्तरीय में लपेटकर छिपा ली और मैं असाधारण पुरुष की तरह खुले संसार में पैर के धमाके से हलचल मचाता हुआ आगे बढ़ चला। स्त्री को सदैव दूर से देखा और अनुमान मे समझा था। आश्रम में स्त्री- मात्र दुष्प्राप्य थी। फिर मैं तो मातृहीन बालक ठहरा । परन्तु सदैव ही मैंने स्त्री- जाति के सम्बन्ध में विचारा । फिर भी वह क्या वस्तु है, कुछ समझा नहीं। पर, विशाल जगत् में आते ही स्त्री भी मिली । अद्भुत वस्तु थी। इसे देख, फिर और किसीको देखने की इच्छा ही न होती थी । मैं जगत् को भूल गया। स्त्री-शरीर, स्त्री-हृदय, स्त्री-भावना, यह मेरा खाने और बिखेरने का अव विषय रहा, परन्तु जीवन का एक नूतन अनिर्वचनीय अानन्द तो अभी मिलना शेष ही था । वह मुझे शिशु कुमार के अवतरण होते ही मिला। आह ! जगत् के पर्दो के भीतर क्या-क्या छिपा है, और उसे भाग्यवान् किस तरह अनायास ही प्राप्त कर लेते है, यह मैं क्या कभी विचार भी सकता था ? वाह रे मेरा सुखी जीवन और मेरा नवीन संसार ! मैं सोता था हंसकर, जागता भी था हंसकर ! शिशु कुमार और उसकी माता, ये दोनों ही मेरे हास्य के साधन थे। शीतकाल के प्रभात की सुनहरी धूप की तरह वह मेरा हास्य मुझे कैसा सजता था ! आज १५ वर्ष से मैं उस अतीत हास्य की कल्पना करके भी एक सुख पाता हूं। देश मेरा प्राण और देश-सेवा मेरा व्रत था। यह बात कुछ मेरे मन के भीतर नहीं उपजी, प्रत्युत् मुझे बचपन से सिखाई गई थी। उस पाश्रम की उन अति गरिष्ठ पुस्तकों के अलावा-जिनसे सदैव भयभीत रहने पर भी मेरा पिण्ड नहीं छूट सका था-यही एक प्रधान विषय था, जिसे प्राश्रम के गुरु से शिष्य तक भिन्न-भिन्न शब्दों और शैलियों में सोचते-विचारते थे। देश ही मातृभूमि है, वह मातृभूमि-माता जन्मदात्री माता से भी पूज- नीय है। वही मातृभूमि विदेशी अत्याचारियों द्वारा दलित है । उसका उद्धार करना हमारे जीवन का एक व्रत है। बस, यही हमारे देश-प्रेम की रूपरेखा
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