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अम्बपालिका
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चित्रकार न तो वैसा चित्र ही अङ्कित कर सकता था और न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था।

उस भुवन-मोहनी की वह छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई। गहरे काले रंग के बाल उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कंधों पर लहरा रहे थे। स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गुथा हुआ आभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था। उसकी काली और कटीली आंखें, तोते के समान नुकीली नाक, बिम्ब- फल जैसे अधर-ओष्ठ और अनार-दाने के समान उज्ज्वल दांत, गोरा और गोल चिबुक बिना ही श्रृंगार के अनुराग और आनन्द बखेर रहा था । अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व की वह वैशाली की वेश्या ऐसी ही थी।

मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी और इसलिए उसका उन्मत्त कर देने वाला मुख साफ देखा जा सकता था। वह अपनी पतली कमर में एक ढीला सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी। हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी और गोरी-गोरी गोल कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हुई थी।

उस मकड़ी के जाले के समान बारीक उज्ज्वल परिधान के नीचे, सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घांघरा था, जो उस प्रकाश में बिजली की तरह चमक रहा था । पैरों में छोटी-छोटी लाल रंग की उपानत् थीं, जो सुनहरी फीते से कस रही थीं।

उस समय कक्ष में गुलाबी रङ्ग का प्रकाश हो रहा था । उस प्रकाश में अम्बपालिका का मानो परदा चीरकर इस रूप-रंग में प्रकट होता आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण-सा प्रतीत हुआ । वह अभी तक स्तब्ध खड़ा था। धीरे-धीरे अम्बपालिका आगे बढ़ी । उसके पीछे १६ दासियां एक ही रूप और रंग की, मानो पाषाण-प्रतिमाएं ही आगे बढ़ रही थीं।

अम्बपालिका धीरे-धीरे आगे बढ़कर आगन्तुक के निकट पाकर झुकी और फिर धुटने के बल बैठ, उसने कहा-परमेश्वर, परम वैष्णव, परम भट्टारक, महाराजाधिराज की जय हो ! इसके बाद उसने सम्राट के चरणों में प्रणाम करने को सिर झुका दिया । दासियां भी पृथ्वी पर झुक गई ।

आगन्तुक महाप्रतापी मगध सम्राट् बिम्बसार थे। उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपालिका को ऊपर उठाया। अम्बपालिका ने निवेदन किया-महाराजा-