पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२८८

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नहीं इधर आचार्य ने कुछ नई पद्धति पर कहानी लिखना आरम्भ किया है, जो सम्भवतः हिन्दी में सर्वथा नया प्रयोग है। इसमें न ब.थानक है, न चरित्र- चित्रण, न घटनाएं ; केवल भाव है । भावों का आवेश नहीं है, विचारों के आधार पर एक स्थापना की गई है। 'नहीं' ऐली ही कहानी है । यह कहानी 'शरत्' के एक-दो वाक्यो पर आधारित है। परन्तु, दक्षिणा ने कहा- नहीं ! 'नहीं क्यों ? यह भी कोई बात है भला?' भोलानाथ ने क्रोध मे फूत्कार करके नथुने फुलाकर कहा । 'नहीं, ऐसा हो नहीं सकता,' दक्षिणा ने सहज, शान्त और स्थिर स्वर में कहा और फिर वह उठकर धीरे से चल दी। उमगी 'नहीं' में न तो विद्वेष की जलन थी और न क्षमा का दम्भ था। उसके नीचे झुके हुए पलकों के भीतर एक नीरव संयम झांक रहा था। आप ही कहिए भला, एक दिन जिसे उसने अपना अमल, धवल, कोमल, नवीन केले के पत्ते के समान शोभायुक्त अछूता कौमार्य पूर्ण समर्पित किया था, अपने प्राणो के उल्लास को लेकर जिमे पागल की तरह प्यार किया था, जिसकी आखों में आंखें डालकर जीवन की सार्थकता को समझा था, अब उसीके प्रति निर्मम कल्पना कैसे कर सकती थी? उसने तो उसी दिन, उसी क्षण सब की निगाह से श्रोझल उसके सब दोप चुपके से धो-पोंछ करके साफ कर दिए थे। ऐसा क्रुद्ध शोकाकुल हाहाकार का भाव तो उसके शान्त हृदय में उठा ही नहीं। भीतर पाकर उसने देखा, वृद्धा माता चुपचाप निश्चल बैठी हैं । उसने मां के पास आ स्निग्ध स्वर में कहा-यह क्या मां, अभी तक चूल्हा नहीं जला ! आज रसोई नही बनेगी क्या ? बाबूजी के दफ्तर जाने का तो समय भी हो चुका। हरिया गया कहाँ ?

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