पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३०८

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२६८ भाव कहानिया 'तूने क्या हमारी पुष्करिणी देखी।' 'चाय पीकर उधर ही चली गई थी। सच मान श्रद्धा, देखकर ठगी-मी रह गई। यूरोप में भला यह सुपमा कहां !' 'मेरे नील कमल देखे तूने; कैसे लगे ?' 'तू बुरा मान चाहे भला मान, एक चुपके से चुरा लाई हूं। यह मेरे जूड़े मे लगा है । ऐसे बड़े-बड़े सुन्दर नील कमल मैंने कभी देखे न थे। पारिजात भी ऐमा ही फूल होता होगा, जिसके लिए रुक्मणि ने कृष्ण को इन्द्र से विग्रह करके नन्दन वन से ले पाने का आग्रह किया था !' 'ऐसे फूल और ऐसी सुषमा क्या तूने उस क्षीणकलेवरा स्रोतस्विनी में भी नहीं देखी ? क्या उस नदी में ऐसे फूल नहीं पैदा होते ?' 'बहते पानी में भला फूल हो सकते हैं ? फूल तो बन्द पानी में ही होते है। तो बहिन, मेरे सौन्दर्य का दृष्टिकोण भी देख, तू उस प्रवाहिणी नदी को नारी की उपमा देती है, तो मैं अपनी इस पुष्पिता पुष्करिणी को नारी की उपमा से सुव्याख्यात करती हूं। परन्तु मेरी इस नारी में और तेरी उस नारी में अन्तर तो है। तेरी वह नारी पाश्चात्य नारी है-निरन्तर प्रवाहित अनवरत अग्रसर होती हुई। परन्तु यह नारी भारतीय है। अपने घर के प्रांगन में बद्ध और पुष्पिता। कह, दोनों में अधिक सुन्दर कौन है ?' 'सुन्दरता की बात छोड़ । तू क्या यह कहना चाहती है कि भारतीय नारी को जो हमने घर के प्रांगन में बांध रखा है, वही उसके सौन्दर्य की पराकाष्ठा । 'हां, यही मैं कहती हूं। परन्तु भारतीय नारी को फिसीने बांधकर नहीं रखा है, वह तो स्वयं ही स्वेच्छा से कर्म बन्धन में बंध गई है । परन्तु उसका यह बन्धन साधारण नहीं है। उसने संसार की प्रलयकारिणी शक्ति को अपने साथ बांधकर रखा है। दूसरे शब्दों में, नारी शयनगृह का दीप है जो स्वयं जल- कर स्निग्ध प्रकाश प्रदान करता है।' 'तुम्हारा यह अभिप्राय तो नहीं है कि नारी के कार्य का प्रसार संकीर्ण है, विशाल संसार-क्षेत्र में उसके लिए स्थान ही नहीं है। मात्र पति, पुत्र, परि- जनों को सन्तुष्ट करने ही में उसके कर्तव्य की पूर्ति हो जाती है ?' 'मेरा अभिप्राय यह है कि नारी का जीवन से नकद का लेनदेन है। अपने