युगलागुलीय २६६ सभी कार्यों के फलों की उपलब्धि वह हाथों-हाथ चाहती है।' 'नौर पुरुष। 'पुरुषों की बात जुदा है। उनका कार्यक्षेत्र दूर देश और भूत-भविष्य मे फैला हुआ है। उनपर आसपास की निन्दा-स्तुति का प्रभाव ही नहीं पड़ता। पाशा और कल्पना के आसरे वह अविचलित रहता है।' 'श्राशा और कल्पना का आसरा तो स्त्रियों को भी तकना पड़ता है।' 'बहुत कम । उनका प्रधान काम है आनन्द-दान करना । यदि नारी संगीत और कविता की भांति अपना अस्तित्व सम्पूर्ण सौन्दर्यमय बना डाले तो उसके जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया। बस, अब काहे को प्राशा और कल्पना के चक्कर में फंसे ? वह तो हाथों-हाथ लाभ में ही खुश है।' 'इसमें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की लघुता का प्राभास तुझे नहीं मिलता, श्रद्धा, तनिक भी नहीं । हमारी सीमा बृहत्त्व मे नहीं है, महत्व में है ।' 'बृहत्त्व मे क्यों नहीं, और महत्व में कैसे ?' 'देखती तो है तू यह सारा लम्बा-चौड़ा स्थूल शरीर। इसकी सीमा बृहत्त्व मे है। पर शरीर के भीतर जो मर्मस्थल हैं, वे छोटे भी हैं और गुप्त भी। पर शरीर के बृहत्त्व से उन मर्मों के महत्त्व का मूल्य अधिक है। हम सव नारी मानव-समाज की मर्मस्थली हैं। तू इतनी मोटी बात भी नहीं समझती ?' रेखा हंस पड़ी। उसने कहा-तेरे मर्म की बात सचमुच बहुत मोटी हैं, पर इसमें क्या तू नारी को घर में बांधकर भी मनुष्य-समाज के सिर पर बैठाना चाहती है ? 'नारी को मनुष्य-समाज के सिर पर या पैरों पर बैठाने से मेरा क्या प्रयोजन है । मैं तो यह कहती हूं कि मनुष्य प्रतिदिन कर्म-चक्र से कितनी धूल-गर्द उड़ाते हैं, कितनी मलिनता बखेरते हैं, उसे तो कार्यकुशल हाथों से नारी ही प्रतिक्षण साफ करती है। फिर उसके कार्यक्षेत्र को तू संकीर्ण क्यों कहती है ? मानस ससार की सारी ही व्याधियां भूख-प्यास, शान्ति और रोग-शोक ये सभी तो उसीके कार्यक्षेत्र के भीतर उत्पात मचाते हैं, जिनका शमन' धैर्यमयी लोकवत्सला नारी ही तो प्रतिदिन करती है ।' 'इसका अभिप्राय तो यही है कि भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान पुरुष से ऊंचा है ?"
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