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अम्बपालिका
२७
 


उसका व्यापार देख रहे थे । वह आकर भगवान् के सम्मुख फिर लोट गई।

भगवान् ने शुभ हस्त से उसे स्पर्श करके कहा-उठो, उठो ! हे कल्याणी! तुम्हारी इच्छा क्या है ?

‘महाप्रभु ! अपवित्र दासी की घृष्टता क्षमा हो। यह महानारी-शरीर कलंकित करके मैं जीवित रहने पर बाधित की गई, शुभ सङ्कल्प से मैं वंचित रही; प्रभो, यह समस्त सम्पदा कलुषित तपश्चर्या का संचय है। मैं कितनी व्याकुल, कितनी कुण्ठित, कितनी शून्यहृदया रहकर अब तक जीवित रही हूं, यह कैसे कहू । मेरे जीवन में दो ज्वलन्त दिन आए। प्रथम दिन के फलस्वरूप में आज मगध के भावी सम्राट् की राजमाता हूं, परन्तु भगवन् ! आज के महान् पुण्य-योग के फलस्वरूप अब मैं इससे भी उच्च पद प्राप्त करने की घृष्ट अभिलाषा करती हू। महाप्रभु प्रसन्न हों । जब भगवान् की चरण-रज से यह घर पवित्र हुआ, तब यहां विलाप और पाप कैसा? उसकी सामग्री ही क्यों, उसकी स्मृति ही क्यो?

'इसलिए भगवान के चरण-कमलों मे यह सारी सम्पदा-महल, अटारी, धन, कोष, हाथी, घोड़े, प्यादे, रथ, वस्त्र, भण्डार आदि सब समर्पित है। प्रभु ने भिक्षु का उत्तरीय मुझे भिक्षा में दिया है, मेरे शरीर की लज्जा-निवारण को यह बहुत है स्वामिन् ! आज से अम्बपाली भिक्षुणी हुई । अब यह इस भिक्षा में प्राप्त पवित्र वस्त्र को प्राण देकर भी सम्मानित करेगी। हे प्रभु ! आज्ञा हो ।'

इतना कहकर अविरल अश्रुधारा से भगवत्-चरणों को धोती हुई, अम्बपालिका बुद्ध की चरण-रज नेत्रों से लगाकर उठी, और धीरे-धीरे महल से बाहर चली। महावीतराग बुद्ध के नेत्र आप्यायित हुए। उन्होंने 'तथास्तु' कहा और खडे होकर उसका सिर स्पर्श करके कहा—कल्याण ! कल्याण !! सहस्र-सहस्र कण्ठ से 'जय अम्बपालिके, जय अम्बपालिके' का गगन-भेदी नाद उठा । सहस्रो नर-नारी पीछे चले । अम्बपालिका उसपीत परिधान को धारण किए, नीचा सिर किए, पैदल उसी राजमार्ग से भूमि पर दृष्टि दिए धीरे-धीरे नगर से बाहर जा रही थी और उसके पीछे समस्त नगर उमड़ा जा रहा था । खिड़कियों से पीर वधुएं पुष्प और खील-वर्षा कर रही थीं।

भगवान् ने कहा-हे आनन्द, यह स्थान बौद्ध भिक्षुत्रों का प्रथम विहार