पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३११

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युगलागुलीय ३०१ सहारा तुम्हारे लिए । वे पैर पुजवाते हैं, तुम उनकी लात खाती हो । बस यही तो देवी-देवताओं की बातें हैं। या और कुछ ?' 'और कुछ क्या, बहुत कुछ। ये सब तो केवल भाव-भावनाओं की ही बाते हैं। वास्तविक जीवन की ओर देखो। हमारे देश में गार्हस्थ्य का भार कितना गुरुतर है, उसे तो स्त्रियां ही सदा से ढोती आई है। आचार, व्यवहार और भारतीय स्वजनो से भरे परिवार के बोझ को खीच ले जाना क्या ऐसा प्रामान हे । दूसरे देशो में पुरुष अर्थ और राजनीति के वडे-बड़े चक्र चलाते हैं । इसने उनके जीवन-क्रम नारी के जीवन-क्रम से बहुत भिन्न हो गए हैं। पर भारतीय पुरुष तो एकदम घरघुस्सू हैं, पत्नीचालित । किसी बड़े क्षेत्र में कब से उनके जीवन का विकास रुक गया है, यह बात अब बिना अतीत का इतिहास पढे याद ही नही आती। व्यवहार मे तो उन्हे भाज किसी पुरुषोचित कर्तव्य का पालन करना पड़ता नहीं।' 'बस, देवता बनकर स्त्रियों की पदपूजा ग्रहण करना और वे पतिव्रतधर्म को भूल न जाएं, इसकी याद दिलाते रहना-यही उनका मुख्य कार्य रह गया है। क्यों यही न ? नहीं, वहिन नहीं। हम भारतीय स्त्रियों का यह सौभाग्य ही है कि हमें अपना कर्तव्य खोजने कहीं भटकना नहीं पड़ता। वह हमें हमारे घर के भीतर आप ही आप हमारे हाथों या जाता है । हम अपने प्यार के दान से अपना कर्तव्य-पालन प्रारम्भ करती हैं। इसीपर से हमारी सम्पूर्ण चेतना-वृत्ति जाग उठती है। बाहर की कोई बाधा हमें रोक नहीं सकती। हम अधीनता के भीतर अपना तेज सुरक्षित रखती हैं। पुरुषों की वाह्य प्रधानता इसीसे हमे खलती नहीं। वे बाह्य जगत् में तीस-मारखां हों, पर हमारे वे आज्ञाकारी और पालतू अनुगत पति ही है।' 'अनुगत क्यों ? 'देखो रेखा, तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि बुद्धि में भारतीय स्त्रियां पुरुपो से श्रेष्ठ है । इस अनुपात से शिक्षिता स्त्रियां पुरुषों के ऊपर हैं ।' 'यह कैसे ? 'ऐसे कि हमारे देश के शिक्षित पुरुष मूढ़ अहंकार में अभिभूत हैं और उन्होने शिक्षा और संस्कृति में अपनी वास्तविकता नष्ट कर दी है। इसीसे उनके मनो- भाव विकृत हो गए हैं। शिक्षा पाकर वे धरती पर पैर ही नहीं रखते। अइकार