पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३१९

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, कौतुक कहानियां इतना कि साफ कहा जा सकता है कि फैक्टरी से निकलने के बाद उन्होने पालिश की सूरत ही नहीं देखी ! दुबले-पतले, कोई छटांक-भर के प्रादमी थे, न हंसते थे, न बोलते थे, न इठलाते थे, न मचलते थे। एक के बाद दूसरी बीड़ी जेब से निका- लते और फूंकते जा रहे थे। मुझे बड़ा कौतूहल हुआ । परिचय पूछा तो एक दोस्त ने मुस्कराकर सिर्फ इतना ही कहा--- 'पाप पीर नाबालिग हैं।' दोस्त के होंठ ही नहीं, अांखें भी मुस्करा रही थीं। मैंने उठकर कहा--तब तो मुझे आपका अदव करना चाहिए। और मैंने जरा उठकर प्रादाब-अर्ज किया। 'पीर नाबालिग' बनकर भी न बने। ठण्डे-ठण्डे सलाम लेकर गम्भीरता से बीड़ियां फूंकते रहे। मैं व्यान से उनकी ओर घूरकर देखता रहा। एक दोस्त ने कहा-आपके पास कुछ शिकायत करने आए है। मैंने हैरान होकर कहा-शिकायत ? दोस्त के चेहरे पर शरारत की रेखाएं साफ दीख पड़ रही थीं। उसने नकली गम्भीरता से कहा-~जी हां, शिकायत ! प्रापको सुनना होगा, और मुनासिब बन्दोबस्त करना होगा। मैं समझ गया कि कोई दिलचस्प फिगर है। मैंने भी वैसी ही गम्भीरला से कहा---तो मैं सब कुछ कर गुजरने पर आमादा हूं, फर्माइए । पीर नाबालिग ने धीरे से कहा-बनारस मे जयप्रकाशनारायण पाए हुए हैं, आपने सुना होगा? 'कल रात अखबार में पढ़ा था।' 'वनारस में उन्हें एक लाख की थैली भेंट की जा रही है, यह भी आपको मालूम है।' 'हो सकता है। 'यह तो एक अन्धेर है।' मैं कुछ नहीं समझा कि मेरे नए दोस्त क्या कहना चाहते हैं। मैंने अकचका- फर कहा-अन्धेर?