पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३३६

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डाकार गहब वी घटी -- रहे घर पर होने और भी बहुत अहसान किए थे, यहा तक कि रियासत म मरा नोकरो उन्होंने लगवाई थी और महाराज आलोजाह की कृपादृष्टि भी उन्होंती बदौलत मुझपर थी ! एक दिन सदा की भांति वे इसी बैठकखाने में मेरे पास बैठे थे। हम लोग बड़े प्रेम में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे । वास्तव में बात यह थी कि मैं उनका बहुत अदब करता था, उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था, फिर मुझपर तो उनके बहुन से अहमान थे। एकाएक मुझे जरूरी 'कॉल' आ गई। पहले तो सूबेदार साहब को छोड़कर जाना मुझे नहीं रुचा; परन्तु जब उन्होंने कहा कि कोई हर्ज नही, प्राप मरीज को देख पाइए, मैं यहां बैठा हूं तब मैंने कहा---इमी शर्त पर जा सकला हूं कि आप जाएं नहीं । तो उन्होंने हंसकर मंजूर किया और पैर फैलाकर मजे में बैठ गए। मैंने झटपट कपड़े पहने, स्टेथस्कोप हाथ में लिया और रोगी देखने चला गया। रोगी का घर दूर न था। झटपट ही उससे निपटकर चला आया। देखा तो युभेदार साहब सोफे पर बैठे मजे से ऊंच रहे हैं । मैंने हंसकर कहा- वाह, आपने तो अच्छी-खासी झपकी ले ली । सूबेदार भी हंसने लगे। हम लोग फिर बैठकर गपशप उड़ाने लगे। उनी दिन पाच बजे मुझे महलों में जाना था । एकाएक मुझे यह दात याद हो पाई और मैंने अभ्यास के अनुसार मेज पर घड़ी को टटोला। तब यह बिल्लौर मेज मैने नहीं खरीदी थी, वह जो प्राफिम-टेबिल है, उतीपर एक जगह यह घड़ी मेरी प्रांखों के सामने रक्खी रहती थी। परन्तु उस समय जो देखता हूं तो घड़ी का कहीं न पता था ! कलेजा धक से हो गया। अपनी बेवकूफी पर पछताने लगा कि इतनी कीमती घड़ी ऐसी अरक्षित जगह रखी ही क्यों ? मैं तनिक व्यस्त होकर बड़ी को ढूंडने लगा, मेरी बड़ी कितनी बहुमूल्य है, यह तो आप जानते ही हैं। सूवेदार साहब भी घबरा गए । दे भी व्यस्त होकर मेरे साथ घड़ी टूटने में लग गए। बीच में भांति-भांति के प्रश्न करते जाते थे। परन्तु यह निश्चय था कि थोड़ी ही देर पहले जब मैं बाहर गया था, घड़ी वहां रखती थी। मैंने उसे भली भांति अपनी आंखों से देखा था। पर यह बात मैं साफ- साफ सूबेदार साहब से नहीं कह सकता था, क्योंकि वे तब से अब तक यहीं बैठे थे, कहीं वे यह न समझने लगे कि हमीपर शक किया जा रहा है। खैर, । 3