पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३९

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महाराजकुमार के अन्तस्तल में सदैव जागरित प्रबुद्ध सत्ता उस मद से क्षण भर को मूछित हो गई। उन्होंने पत्नी-श्रेष्ठ को प्रगाढ़ आलिंगन करके चुम्बन किया। गोपा ने हंसकर कहा-प्रार्यपुत्र ! स्मरण रखें कि यह अनुग्रह वेतन में नहीं काटा जाय, पुरस्कारमात्र समझा जाय ? राजकुमार हंस पड़े । उन्होंने कहा-गोपा प्रिये ! उस दिन तो तुम इतनी चपला न थीं, जिस दिन भाण्ड-वितरण 'आर्यपुत्र के पास इसी बात का क्या प्रमाण है कि मैं वालिका हूं ?' गोपा ने बात काटकर कहा । 'वही तो हो प्रिये ! यह नेत्र और यह अधरोष्ठ, इन्हें क्या मैं भूल जाऊंगा? मोह, इन्हींने तो मुझे ठगा।' राजकुमार मानो एक गम्भीर चिन्तन में पड़ गए। गोपा ने ब्याज' कोप से कहा-प्रार्यपुत्र को भ्रम हुआ है। वे थीं राजनन्दिनी यशोधरा-कोलकुमारी, और मैं हूं भगवती गोना-शाक्यसिंहासन की युव- राज्ञी। 'अच्छा अच्छा प्रिये ! अब चलो, प्रासाद में चलें, सूर्य अस्त हो रहा है; तुम्हे शीत का भय है।" 'जो प्राज्ञा प्रार्यपुत्र !' 'अर्द्धरात्रि तो कव की व्यतीत हो गई। त्रिशिरा नक्षत्र प्राकाश के मध्य भाग में श्रा गए। आर्यपुत्र क्या शयन न करेंगे ?' 'मोह प्रिये ! तुम अभी तक जाग रही हो ?' 'सारा संसार मोहमयी निद्रा में शयन कर रहा है।' 'हाय ! यह कैसे दुःख का विषय है ?' 'कैसा घोर अन्धकार है ? ‘पर मेरा हृदय प्रकाशित है।' 'मेरे प्रभु ! तुम्हारे इतने निकट होने पर भी मैं उस प्रकाश की एक किरण भी नहीं देखती।' 'मैं उसे संसार के प्राणिमात्र को दिखाने की बात सोच रहा हूं प्रिये ।'